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________________ २३६ नव पदार्थ नहीं होता। 'पूजन' शब्द द्वारा पुष्पादि से द्रव्यपूजा का संकेत किया गया है तो वह अवश्य दोषरूप है। यह व्याख्या देने के बाद उसी टीका में लिखा है : “तीर्थंकर, गणधर, मोक्षमार्गानुयायी मुनि ही सुपात्र हैं। “देश विरतिवान् गृहस्थ तथा सम्यकदृष्टि पात्र हैं । “दीन, करुणा के पात्र, अंगोपांग से हीन व्यक्ति भी पात्रों के उदाहरण में सम्मिलित हैं। "इन दो के अतिरिक्त शेष सभी अपात्र हैं। " सुपात्रों को धर्मबुद्धि से दिये गये प्रासुक अशनादि के दान से अशुभ कर्मों की महती निर्जरा तथा महान् पुण्य-बंध होता है। “देश विरति तथा सम्यक्दृष्टि श्रावकों को अन्नादि देने से मुनियों के दान की अपेक्षा अल्प पुण्य-बंध तथा अल्प निर्जरा होती है। "अंग विहीनादि को अनुकंपा की बुद्धि से दान देने से श्रावकों को दान देने की अपेक्षा भी अल्पतर पुण्य-बंध होता है। "कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति किसी के घर दान के लिए जाता है और उसे यह सोच कर दान देना पड़ता है कि अपने घर आये इस व्यक्ति को यदि कुछ नहीं देता हूँ तो इससे अपने अर्हत् धर्म की लघुता होगी। ऐसा सोच कर दान देने वाला व्यक्ति अल्पतम पुण्य-बंध प्राप्त करता है । "करुणा के वशीभूत होकर कुत्ते, कबूतर प्रभृति पशुओं को अभय दान तथा अन्न दान देने से पात्रत्व के अभाव में भी करुणा के कारण निश्चित रूप से पुण्य-बंध होगा ही । "सत्य स्याद्वादमत से पराङ्मुख अपने घर में आए हुए ब्राह्मण, कापालिक तथा तापसों को धर्म का भाजन समझ कर अथवा यह समझ कर कि इन्हें भी दान देने से पुण्य-बंध होगा- दान न दे। लेकिन मेरे द्वार पर आया हुआ कोई भी व्यक्ति निराश होकर लौट न जाय और यदि वह बिना अन्नादि को पाए ही लौटता है तो इससे जैनधर्म की जुगुप्सा होगी अथवा ऐसा करने से मेरे दाक्षिण्य गुण में कमी आयेगी, ऐसा सोच कर आत्मिक बुद्धि से जिनधर्म से विमुख व्यक्तियों को भी यथाशक्ति अशनादि दान से दान गुण की उपवृंहणा तथा धर्म-प्रभावना होती है ।" १. श्रीनवतत्त्वप्रकरणम् (सुमंगला टीका) पृ० ४६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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