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पुण्य पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी १५.
अत्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जन्ति ? हंता ! अत्थि । कहं णं भंते! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जन्ति ?.. कालोदाई जीवाणं पाणाइवायवेरमणे जाब परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जति । ( ७.१०)
इसका भावार्थ इस प्रकार है :
"भगवन् ! जीवों के किये हुए पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ?" "कालोदायी ! होता है।" "भगवन् ! यह कैसे होता है ?" "कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (परिपक्व ), अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है, वह (भोजन) आपातभद्र ( खाते समय अच्छा ) होता है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें दुर्गन्ध पैदा होती है-वह परिणाम-भद्र नहीं होता । कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य (अठारह प्रकार के पाप कर्म) आपातभद्र और परिणाम विरस होते हैं। कालोदायी ! इस तरह पाप कर्म पाप-विपाक वाले होते हैं । *
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"भगवन् ! जीवों के किये हुए कल्याण - कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ?" "कालोदायी ! होता है।" "भगवन् ! कैसे होता है ?" "कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक शुद्ध (परिपक्व ) अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण, औषधि - मिश्रित भोजन करता है, वह आपातभद्र नहीं लगता, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सवर्णता और सुखानुभूति उत्पन्न होती है - वह परिणामभद्र होता है । कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपातविरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य- विरति आपातभद्र नहीं लगती, किन्तु परिणामभद्र होती है। कालोदायी ! इस तरह कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले होते हैं। *
इस प्रसंग में पाप कर्म पाप - विपाक वाले और कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले कहे गये हैं । प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य इन अठारह पापों के सेवन से पाप-कर्म का बंध और उनकी विरति से कल्याण-कर्म का बंध कहा गया है। यहाँ भी प्रकारान्तर से- शुभयोग से ही पुण्य कर्म की प्राप्ति कही गई है। प्राणातिपातविरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से निर्जरा होती ही है ।