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________________ पुण्य पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी १२ २१६ का पुत्र सुबाहु कुमार उनके दर्शन के लिए गया । वह इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोहर, मनोहररूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप था। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-“भन्ते ! सुबाहुकुमार को ऐसी इष्टता, सुरूपता और उदार मनुष्य-ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई है ? पूर्व भव में वह क्या था ?" भगवान महावीर ने बतलाया-'पूर्व भव में सुबाहु कुमार हस्तिनापुर नगर का सुमुख नामक गाथापति था। एक बार धर्मघोष नामक स्थविर हस्तिनापुर पधारे । उनके सुदत्त नामक अनगार महीने-महीने का तप करते थे। एक बार मासिक तपस्या के पारण के दिन सामुदानिक गोचरी के लिए वे हस्तिनापुर में गये। सुदत्त अनगार को आते हुए देखकर सुमुख गाथापति अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । वह आसन से उठ बैठा। फिर आसन से उतर उसने जूते उतारे । एकसाटिक उत्तरासन लगा सात-आठ हाथ सामने गया और तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार किया। वंदना और नमस्कार कर वह भत्तघर-रसोईघर की ओर गया। अपने हाथ से विपुल अशन-पान-खाद्य और स्वाद्य का दान दूंगा।-ऐसा सोच तुष्ट-प्रमुदित हुआ। देते समय भी तुष्ट-प्रमुदित हुआ । देकर भी तुष्ट-प्रमुदित हुआ। शुद्ध द्रव्य, शुद्ध दाता, शुद्ध पात्र होने से तथा तीन करण तीन योगों की शुद्धिपूर्वक सुदत्त अनगार को दान देने से सुमुख गाथापति ने संसार को परीत-संक्षिप्त किया; मनुष्य-आयुष्य का बंध किया' । सुमुख गाथापति बहुत दिनों तक जीवित रहा और वहाँ से कालकर हस्तिशीर्ष नगर में अदीनशत्रु के यहाँ धारिणी की कुक्षि से पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ है। गौतम ! सुबाहु कुमार ने इस प्रकार दान देने से इष्टता आदि उदार मनुष्य ऋद्धि प्राप्त की है।" इसी तरह ‘सुख विपाक सूत्र' के शेष ६ अध्ययनों में भद्रनन्दि कुमार, सुजात कुमार, सुवासव कुमार, जिनदास वैश्रमण कुमार, महाबल कुमार, भद्रनन्दि कुमार, महचन्द्र कुमार और वरदत्त कुमार के संसार परीत-संक्षिप्त करने और मनुष्य-आयुष्य प्राप्त करने का उल्लेख है। १. वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं हत्थेणं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभिस्सामि त्ति तुट्टे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे पडिलाभिएत्ति तुढे । तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पत्तसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकते मणुस्साउए निबद्ध
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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