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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ४ २०३ चाहिए। यहाँ पात्र-दान से तीर्थंकर आदि पुण्य-प्रकृति का बंध कहा है न कि हर किसी को अन्नादि देने से। पात्र अप्रासुक नहीं लेता। अतः पात्र को प्रासुक देने से ही पुण्य होता है। उत्कृष्ट पुण्य-प्रकृति का बंध भावों की तीव्रता के साथ सम्बन्धित है। भावों में उत्कृष्ट तीव्रता होने से निरवद्य दान से तीर्थंकर पुण्य-प्रकृति का बंध होता है अन्यथा अन्य पुण्य-प्रकृतियों का। इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि साधु को देने से तीर्थंकर पुण्य-प्रकृति आदि का बंध होता है और अन्य को देने से अन्य पुण्य प्रकृतियों का। ४. पुण्य-बंध के हेतु और उसकी प्रक्रिया (गाथा १-३) : इस ढाल के दोहे १, २ और इन गाथाओं में जो सिद्धान्त दिए गए हैं वे इस प्रकार हैं : (१) पुण्य शुभ योग से उत्पन्न होता है। (२) शुभ योग से निर्जरा होती है और पुण्य सहज रूप से उत्पन्न होता है। (३) जहाँ पुण्य होगा वहाँ निर्जरा अवश्य होगी। (४) सावध करणी से पुण्य नहीं होता। (५) पुण्य की करणी में जिनाज्ञा है। . हम नीचे इनपर क्रमशः विचार करेंगे। (१) पुण्य शुभयोग से उत्पन्न होता है : इस विषय में कुछ प्रकाश पूर्व में डाला जा चुका है (देखिए पृ० १५८ टि० ५)। 'योग' का अर्थ है कर्म, क्रिया, व्यापार । योग तीन हैं-कायिक कर्म, वाचिक कर्म और मानसिक कर्म । हिंसा करना, चोरी करना, अब्रह्मचर्य का सेवन करना, आदि अशुभ कायिकयोग हैं। सावद्य बोलना, झूठ बोलना, कटु बोलना, चुगली करना आदि अशुभ वाचिकयोग हैं। दुर्ध्यान, किसी को मारने का विचार, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मानसिक योग हैं। जो इनसे विपरीत कायिक आदि योग हैं वे शुभ हैं। हिंसा न करना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना शुभ काययोग हैं। सत्य, हित, मित बोलना शुभ वाचिकयोग हैं। अर्हत आदि की भक्ति, तपोरुचि, श्रुतविनयादि शुभ मनोयोग हैं। सिद्धसेन कहते हैं-धर्मध्यान, शुक्लध्यान का ध्यान कुशल मनोयोग है। १. तत्वार्थसूत्र ६.१ भाष्य . २. राजवार्तिक ६.३ वार्तिक : अहिंसाऽस्तेयब्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः। सत्यहितमित भाषणादिःशुभोवाग्योगः। अहंदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादिः शुभो मनोयोगः ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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