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________________ पुण्य पदार्थ : (टाल : १) टिप्पणी ६ १५६ पुण्य का बंधन शुभ योग से कहें, शुभ भाव से कहें, शुभ परिणाम से कहें अथवा शुभ उपयोग से, एक ही बात है। यह केवल शब्द-व्यवहार का अन्तर है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार वह श्रमण जिसे पदार्थ और सूत्र सुविदित हैं, जो संयम और तप से युक्त है, जो वीताराग हैं और जिसको सुख-दुःख सम है वह शुद्ध उपेयाग वाला होता है। ऐसा श्रमण आस्रव-रहित होता है और पाप का तो हो ही कैसे उसके पुण्य का भी बंधन नहीं होता है। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार चौदहवें गुण स्थान में श्रमण अयोगी केवली होता है और तभी पुण्य का सञ्चय रुकता है। उसके पहले सब श्रमणों को शुभ क्रियाओं से पुण्य का बंध होता है। ६. साता वेदनीय कर्म (ढाल गा० ५) गाथा २ (टिप्पणी ३) में बताया जा चुका है कि निम्न चार कर्म पुण्य रूप हैं : १. सातावेदनीय कर्म, २. शुभ आयुष्य कर्म, ३. शुभ नाम कर्म और ४. शुभ गोत्र कर्म। दिगम्बराचार्य भी इन्हीं चार को पुण्य कर्म कहते हैं। स्वामीजी ने गाथा ५-३१ में इन चार प्रकार के पुण्य कर्मों का विस्तार से विवेचन किया है। प्रस्तुत गाथा में सातावेदनीय कर्म की परिभाषा देकर उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। “यदुदयात् सातं सौख्यमनुभवति सत्सातवेदनीयम्"-जिसके उदये से जीव १. प्रवचनसार १.१४ : सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भाणदो शुद्धोवओगो त्ति।। २. पन्चास्तिकाय २.१४२ : जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदब्वेसु। णासवदि सुहं असहुं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।। ३. द्रव्यसंग्रह ३८ : सादं सुहायं णामं गोदं पुण्ण पराणि पावं च।। ४. अव० वृत्त्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरणम् (नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः) ८||१७ ।। की वृत्ति
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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