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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : १) ४४. ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. पुण्यवान के रूप - शरीर की सुन्दरता होती है । उसके वर्णादि श्रेष्ठ होते हैं। वह सबको प्रिय लगता है। उसका बार-बार बोलना सुहाता है। संसार में जो-जो सुख हैं उन सबको पुण्य के फल जानो । मैं कह कर कितना वर्णन कर सकता हूँ, बुद्धिमान स्वयं पहचान लें । पुण्य के जो सुख बतलाए गये हैं वे लौकिक (सांसारिक) दृष्टि की अपेक्षा से उत्तम हैं । मुक्ति-सुखों से इनकी तुलना करने से ही ये एकदम ही सुख नहीं ठहरते । पुण्य के सुख पौद्गलिक है और सब रोगोत्पन्न हैं । मुक्ति के सुख आत्मिक हैं और अनुपम हैं। जिस तरह पाँव के रोगी को खाज अत्यन्त मीठी लगती है उसी तरह पुण्य के उदय होने पर इन्द्रियों के शब्दादि विषय जीव को सुखकर - प्रिय लगते हैं । जिस तरह सर्प के डंक मारने से विष फैलने पर नीम के पत्ते मीठे लगते हैं उसी तरह पुण्य के उदय होने पर जीव को भोग मीठे और प्रधान लगते हैं । पुण्य के सुख रोगोत्पन्न हैं उनमें जरा भी सार मत समझो । फिर ये सुख क्षणभंगुर और अनित्य हैं। इन्हें विनाश होते देर नहीं लगती । ५१. आत्मिक सुख शाश्वत होते हैं। इन सुखों का कोई अंत नहीं है। ये सुख तीनों काल में शाश्वत है और सदा एक रस रहते हैं । १३ १४७ पौद्गलिक और आत्मिक सुखों की तुलना (गा० ४६-५१)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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