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________________ अजीव पदार्थ : टिप्पणी ६ धर्म-द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गल द्रव्य की गमन-क्रियाएँ नहीं हो सकतीं । धर्म-द्रव्य स्वयं निष्क्रिय है। वह दूसरों को भी गति- प्रेरणा नहीं देता । परन्तु जीव और पुद्गल की गमन-क्रिया में उदासीन होता है। जिस तरह जल मछलियों को तैरने की प्रेरणा नहीं करता परन्तु तिरती हुई मछलियों का सहारा अवश्य होता है, उसी तरह धर्म द्रव्य गति की प्ररेणा नहीं करता परन्तु क्रिया करते हुए, गति करते हुए जीव और पुद्गल का सहायक अवश्य होता है'। बिना धर्म-द्रव्य के जीव पुद्गलों का स्थानान्तर होना सम्भव नहीं है। धर्मास्तिकाय समूचे लोक में व्याप्त है, सब जगह फैला हुआ है । अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय एक ही तरह के द्रव्य हैं। धर्मास्तिकाय की तरह ही अधर्मास्तिकाय लोक-प्रमाण विस्तृत है; पर दोनों के कार्यों में फर्क है। जैसे धर्म-द्रव्य गति सहायी है उसी तरह अधर्म-द्रव्य स्थिति सहायक है । जिस तरह गमिमान जीव और पुद्गल को धर्म का सहारा रहता है उसी तरह स्थिति परिणत जीव और पुद्गल को अधर्म के सहारे की आवश्यकता पड़ती है। बिना इस द्रव्य की सहायता के जीव और पुद्गल की स्थिति नहीं हो सकती । अधर्म-द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति का उदासीन हेतु है। जिस तरह वृक्ष की छाया चलते हुए यात्रियों को पकड़ कर नहीं ठहराती परन्तु ठहरे हुए मुसाफिरों का आश्रय होती है उसी तरह अधर्म गति-क्रिया करते हुए जीव पुद्गल द्रव्यों को नहीं रोकता परन्तु स्थिर हुए जीव पुद्गलों का सहारा होता है। जिस तरह पृथ्वी चलते हुए पशुओं को रोककर नहीं रखती और न उनको ठहरने की प्ररेणा करती है परन्तु ठहरे पशुओं का आधार अवश्य होती है उसी तरह अधर्म द्रव्य न तो स्वयं द्रव्यों को पकड़ कर स्थिर करता है और न स्थिर होने की प्रेरणा करता है परन्तु अपने आप स्थिर हुए द्रव्यों को पृथ्वी की तरह सहारा देता है । ७७ धर्म और अधर्म द्रव्य गति स्थिति के हेतु या इन परिस्थितियों के प्रेरक कारण नहीं है परन्तु केवल उदासीन या बहिरङ्ग कारण हैं। यदि धर्म और अधर्म ही गति स्थ के मुख्य कारण होते तब तो गतिशील द्रव्य गति ही करते रहते हुए और स्थित ही रहते, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। हम हरएक चीज को गति करते हुए और स्थिर होते हुए देखते हैं अतः गति या स्थिति का प्रेरणात्मक या हेतु कारण धर्म या अधर्म नहीं परन्तु १. २. पंचास्तिकाय: १.८४-८५ उत्त० ८.६ : अइम्मो ठाणलक्खणो
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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