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8908 महामंत्र णमोकार : एक वैज्ञानिक अन्वेषण
पंचपरमेष्ठियों के क्रम-निर्धारण में वैज्ञानिकता की भी अद्भुत गुंजायश है । सीधे क्रम की वैज्ञानिकता है कि श्वेतवर्ण सब वर्णों का प्रतिनिधित्व करता है । दूसरी ओर अन्तिम परमेष्ठी से प्रथम परमेष्ठी तक श्याम से श्वेत बनने तक की पूरी प्रक्रिया को भी समझा ही जा सकता है । उत्तरोत्तर आत्मा की विकसित अवस्था को देखा जा सकता है । वास्तव में यह क्रम वास्तविक और व्यवहारिक दोनों धरातलों पर खरा उतरता है ।
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महामन्त्र में अन्तःस्यूत रंगों के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का खुलासा इस प्रकार है कि हम सर्वप्रथम मन्त्र के प्रति अपनी मनोभूमि तैयार करते हैं। दूसरे सोपान पर हम उसका ( मन्त्र का ) जाप, मनन एवं उच्चारण करते हैं । उच्चारण या मनन से हमारे सम्पूर्ण शरीर एवं मन में एक अद्भुत आभामण्डल अथवा भावालोक पैदा होता है । उच्चरित ध्वनियां मूलाधार से आरम्भ होकर समस्त चक्रों में व्याप्त होकर एक नाद का रूप लेती हैं। वह नाद सघन होकर एक आभा में प्रकाश में बदल जाता है । यह प्रकाश सारे चैतन्य में व्याप्त हो जाता है । घनीभूत प्रकाश अपनी अभिव्यक्ति के लिए विवश होकर आकृति में बदलता है और आकृति रंग में होगी ही । आशय स्पष्ट है कि ध्वनि से आकृति (रंग) तक की प्रक्रिया में ही मन्त्र अपनी पूर्ण सार्थकता में उभरता है। इस बात को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ध्वनि अपनी पूर्ण अवस्था में आकृति या रंग में ढलकर ही सम्पूर्णतया सार्थक होती है । इसे हम ध्वनि विश्लेषण की प्रक्रिया भी कह सकते हैं या रंग विज्ञान की पूर्वावस्था का आकलन भी कह सकते हैं ।
आपके शरीर में आपका जो मूल स्थान है जिसे हम ब्रह्मयोनि या कुंडलिनी कहते हैं, वहीं से ऊर्जा का पहला स्पन्दन प्रारम्भ होता है । ध्वनि का विकास कैसे होता है, ध्वनि में नाद का जन्म कैसे होता है; किसको हम बिन्दु, नाद और कला कहते हैं । उन्हीं कलाओं से मन्त्र का विकास, काम का विकास होता है और शरीर के अन्दर चय, उपचय, स्वास्थ्य का ह्रास या वृद्धि भी वहीं से होती है । एक विशिष्ट अक्षर एक विशिष्ट तत्त्व का ही प्रतिनिधित्व क्यों करता है ? बात यह है कि प्रत्येक अक्षर एक आकृति से बंधा हुआ है । प्रत्येक ध्वनि एक विशिष्ट