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3 112 & महामन्त्र गमोकार : एक वैज्ञानिक बन्वेषण महर्षियों ने अपने अनुभव समय-समय पर प्रकट किये हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस कुण्डलिनी उत्थान का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि कुछ झनझुनी-सी पांव से उठकर सिर तक जाती है। सिर में पहुंचने के पूर्व तक तो होश रहता है, पर उसके सिर में पहुंचने पर मी आ जाती है। आंख, कान अपना कार्य नहीं करते । बोलना भी संभव नहीं होता। यहां एक विचित्र निःशब्दता एवं समत्त्व की स्थिति उत्पन्न होती है। मैं और तू की स्थिति नहीं रहती। कुण्डलिनी जब तक गले में नहीं पहुंचती, तब तक बोलना संभव है। जो झन-झन करती हुई शक्ति ऊपर चढ़ती है, वह एक ही प्रकार की गति से ऊपर नहीं चढ़ती। शास्त्रों में उसके पांच प्रकार हैं। 1. चींटी के समान ऊपर चढ़ना । 2. मेंढक के समान दो-तीन छलांग जल्दी-जल्दी भरकर फिर बैठ जाना। 3. सर्प के समान वक्रगति से चलना। 4. पक्षी के समान ऊपर की ओर चलना । 5. बन्दर के समान छलांग भरकर सिर में पहुंचना । किसी ज्योति अथवा नाद का ध्यान करते-करते मन और प्राण उसमें लय हो जाएं तो वह समाधि है। कुण्डलिनो-जागरण या चैतन्य स्फुरण ही योग का लक्ष्य होता है। कुण्डलिनी पूर्णतया जागृत होकर सहस्त्रार चक्र में पहुच कर अन्नतः समाधि में परिणत हो जाती है।
ध्रुव सत्य तक पहुंचने के दो साधन हैं-एक है तर्क और दूसरा है. अनुभव या साक्षात्कार । पदार्थमय जगत् भी स्थूल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार का है। स्थूल जगत् को तो तर्क या विज्ञान द्वारा समझा जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ की भीतरी परिस्थितियां तर्क द्वारा स्पष्ट नहीं होती। प्रयोग भी असफल होते हैं । इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सीमा समाप्त हो जाती है। योगियों, सन्तों और ऋषियों का चिर साधनापरक अनुभव वहां काम करता है। पदार्थसत्ता से परे भावजगत् है । भावजगत के भी भीतर स्तर पर स्तर है। प्रकट मन, अर्धप्रकट मन और अप्रकट मन-ये तीन प्रमुख स्तर हमारे मन के हैं । मनोविज्ञान भी कही थक जाता है इन्हें समझने में। सन्तों और योगियों का अनुभव कुछ ग्रन्थियां खोलता है, परन्तु सबका अनुभव एक-सा नहीं होता है अनुभूति की क्षमता भी सब की एक-सी नहीं होती। उस अनुभव का साधारणीकरण कैसे हो, यह भी एक समस्या रहेगो हो।