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योग और ध्यान के सन्दर्भ में णमोकार मन्त्र
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कायोत्सर्गश्चपर्यङ्क प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् । देहिनावीर्यवैकल्यात् काल दोषेय सम्प्रति ॥
-ज्ञानार्णव प्र. 19, श्लोक 22 प्राणायाम-श्वास एवं उच्छ्वास के साधने की क्रिया को प्राणायाम कहते हैं। शारीरिक सामर्थ्य बढ़ाने के साथ-साथ ध्यान में मानसिक एकाग्रता बढ़ाने के लिए प्राणायाम किया जाता है। वास्तव में शारीरिक वायु को (पंच पवन या पंच प्राण) साधना ही प्राणायाम है। प्राणायाम के सामान्यतया तीन भेद हैं--पूरक, रेचक, कुम्भक।
पूरक-नासिका छिद्र के द्वारा वायु को खींचकर शरीर में भरना पूरक प्राणायाम कहलाता है। रेचक-इस खींची हुई पवन को धीरेबाहर निकालना रेचक है। कुम्भक-पूरक पवन को नाभि के अन्दर स्थिर करना कुम्भक प्राणायाम है।
वायुमंडल चार प्रकार का है-पृथ्वीमंडल, जलमंडल, वायुमंडल एवं अग्निमंडल । इन चारों प्रकार के पवनों को भीतर लेने और बाहर फेंकने से जय, पराजय, लाभ, हानि संभव होते हैं। योगी इन पवनों को नियन्त्रित करके अनेक प्रकार के लौकिक एवं पारलौकिक चमत्कारों का अनुभव करते हैं। नियन्त्रित प्राणवायु के साथ मन को हृदयकमल में विराजित करने वाला योगी परमशान्त निविषयी और सहजानन्दी होता है।
प्राण के प्रकार-प्राण एक अखंड शक्ति है उसे विभाजित नहीं किया जा सकता। फिर भी सुविधा और जीवन-संचालन की दृष्टि ने उसके पांच भाग किये जाते हैं-प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान।
प्राण-प्राण का मुख्य स्थान कंठ नली है। यह श्वास पटल में है। इंसका कार्य अविराम गति है। श्वास-प्रश्वास एवं भोजन नलिका से इसका सीधा सम्बन्ध है । अपान-नाभि से नीचे इसका स्थान है। यह मूलाधार से जुड़ी हुई शक्ति है । यह वायु स्वाभावतः अधोगामिनी है। यह प्राण वायु (अपान वायु) गुदा, आंत एवं पेट का नियन्त्रण करती है। यह ऊर्ध्वमुखी होने पर प्राण घातक हो सकती है। प्रायः यह ऊर्ध्वमुखी होती नहीं है । समान-हृदय और नाभि के मध्य इसकी स्थिति है। पाचन क्रिया में यह सहायक है। उदान-इससे नेत्र, नासिका, कान