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योग और ध्यान के सन्दर्भ में णमोकार मन्त्र
समस्त विश्व के ऋषियों, सन्तों और विद्वानों ने अपने जीवन के अनुभव के आधार पर मानव के दुःखों का मूल-कारण, चित्त की विकृति से उत्पन्न होने वाली अशान्ति को माना है। शारीरिक कष्टों का प्रभाव भी मन पर पड़ता है। पर, मन यदि स्वस्थ एवं प्रकृत्या शान्त है तो वह उसे सहज एवं निराकुल भाव से सह लेता है । मानसिक रुग्णता सबसे बड़ी बीमारी है। इसी मन की भटकन या दिशान्तरण को रोकने के लिए सबसे बड़ी भूमिका अदा करता है। वस्तुतः चित्त का अवांछित दिशान्तरण रुकना ही योग है। महर्षि पतंजलि ने अपने योग शास्त्र में कहा है 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।' जैन शास्त्रों में भी चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है। आत्मा का विकास योग और ध्यान की साधना पर ही अवलम्बित है। योगबल से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और समस्त कर्मों का क्षय किया जाता है। सभी तीर्थंकर परमयोगी थे। समस्त ऋद्धियां और सिद्धियां योगियों की दासियां हो जाती हैं परन्तु वे कभी इनका प्रयोग नहीं करते। इनकी तरंफ दृष्टिपात भी नहीं करते ।
योगशब्द का अर्थ और व्याख्या-युज् धातु से घञ् प्रत्यय के योग से 'योग' शब्द सिद्ध होता है। 'युज्' शब्द द्वयर्थक है। जोड़ना और मन को स्थिर करना ये दो अर्थ योग शब्द के हैं। प्रथम अर्थ तो सामान्य जीवन से सम्बद्ध है। द्वितीय अर्थ ही प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा अभिप्रेत है। मन को संसार से मोड़कर और अध्यात्म में जोड़कर स्थिर करना ही योग है। योग के इसी भाव को कर्म योग के प्रसंग में श्रीमद् भगवतगीता' में 'योगः कर्मसु कौशलयम्' कहकर प्रकट किया गया है। 'गीता' में कर्तव्य कर्म को प्रधानता दी गयी है। कर्म में कौशल चित्त की एकाग्रता के अभाव में सम्भव नहीं है । जैन शास्त्रों में ध्यान शब्द