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भी किये गये हैं। और कालभेद की दृष्टि से प्रतिक्रमण के तीन भेद भी किये हैं-(१) अतीतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, (२) वर्तमान में संवर कर दोषों से मुक्त होना, और (३) भविष्यकालीन दोषों से मुक्त होने के लिए प्रत्याख्यान करना।२ प्रतिक्रमण के द्रव्य और भाव रूप से दो भेद भी किये गये हैं-(१) द्रव्य प्रतिक्रमण,
और (२) भाव प्रतिक्रमण । द्रव्य प्रतिक्रमण का अर्थ है उपयोगरहित, केवल परम्परा की दृष्टि से, यशःकामना की भावना से पाठों को बोलते जाना, पर उसका जीवन में आचरण नहीं करना । द्रव्य प्रतिक्रमण प्राणरहित शरीर के सदृश है जो जीवन में आलोक प्रदान नहीं कर सकता ।३ भाव प्रतिक्रमण का अर्थ है उपयोग सहित वीतराग की आज्ञा के अनुसार, किसी भी प्रकार की लौकिक कामना से रहित होकर कर्ममल से मुक्त होने के लिए जीवन का
१. आवश्यक नियुक्ति, गा. १२४७ २. आवश्यक, पृ. ५५१ ३. जे इमे समणगुणमुक्क जोगी, छक्काय-निरणुकंपा, हया इव
उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्ठा, मट्ठा, तुप्पोट्ठा, पंडुरपडपाउरणा, जिणाणमणाणाए सच्छंदं विहरिऊण उभओ कालं आवस्सयस्स उवट्ठति, से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं ।
- अनुयोगद्वार सूत्र