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(१२) अक्षम होता है, विकास की अन्तिम सीढ़ी पर खड़ा होता है । यौवन ही वह समय है, जो जीवन को समूचेपन से भरता है, 'समग्रता देता है, परिपूर्णता देता है । यौवन सोचने की सामर्थ्य भी देता है और करने की क्षमता भी, इसलिए 'यौवन' मनुष्य की अन्तर् बाह्य शक्तियों के पूर्ण विकास का समय है । इस अवस्था में मनुष्य अपने हिताहित का स्वयं निर्णय कर सकता है
और स्वयं ही उसको कार्यरूप दे सकता है । बचपन और बुढ़ापा परापेक्ष हैं, परावलम्बी हैं । यौवन स्व-सापेक्ष है, स्वावलम्बी है । भगवान महावीर ने इसे जीवन का मध्यकाल बताया है, जागरणकाल बताया है और निर्माणकाल भी।
"मज्झिमेण वयसा एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिता।"
. यौवन वय में कुछ लोग जाग जाते हैं, स्वयं की पहचान कर लेते हैं, अपने