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गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...437 प्रथम प्रकार
दायें अंगूठे को हथेली में मोड़कर मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को अंगूठे के ऊपर स्थापित करें तथा तर्जनी को मोड़ उसे अंगूठे के जोड़ से स्पर्शित करवाने पर वज्रमुष्टि का प्रथम प्रकार बनता है।126 सुपरिणाम
वज्रमुष्टि मुद्रा के प्रयोग से शरीरस्थ पृथ्वी एवं जल तत्त्व संतुलित रहते हैं। यह शरीर को मजबूत, स्वस्थ एवं तंदुरूस्त रखती है। शरीर के तापमान एवं रूधिर आदि की कार्यपद्धति को नियमित रखती है। • मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत करते हुए यह मुद्रा पेट के पर्दे के नीचे स्थित सभी अवयवों के कार्यों का नियमन करती है। यौन हार्मोन उत्पन्न करती है। तनाव एवं प्रतिकूलताओं से लड़ने की क्षमता को उत्पन्न तथा उत्सर्जन एवं विसर्जन के कार्य में सहायक बनती है। • शक्ति एवं स्वास्थ्य केन्द्र को जागृत करते हुए यह शारीरिक एवं जैविक विद्युत का उत्पादन एवं संचय करती है। • प्रजनन ग्रंथि के स्राव का संतुलन करते हुए यह ज्ञानतंतुओं, मज्जा कोषों, हड्डियों, बोन मेरो का नियमन करती है। द्वितीय प्रकार
दूसरे प्रकार में अंगूठा हथेली में प्रविष्ट हुआ और चारों अंगुलियाँ, अंगूठे के ऊपर मुड़ी हुई रहती है।127 तृतीय प्रकार
जापान में वज्रमुष्टि मुद्रा का यह प्रकार 'कोंगो-केन्-इन्' से प्रसिद्ध है। इसमें हथेलियाँ अन्दर की तरफ, मध्यमा और अनामिका हथेली में मुड़ी हुई, अंगूठा द्वयांगुलियों के नीचे दबा हुआ, तर्जनी और कनिष्ठिका फैली हुई, तर्जनी के अग्रभाग स्पर्श करते हुए तथा कनिष्ठिकाएँ प्रथम जोड़ पर गूंथी हुई रहती है तब वज्रमुष्टि मुद्रा का तीसरा प्रकार बनता है।128 सुपरिणाम
__ • यह मुद्रा आकाश एवं जल तत्त्व का संतुलन एवं नियमन करते हुए हृदय में रक्त आपूर्ति सम्बन्धी समस्याओं को पूर्ण करती है। • आज्ञा एवं स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत कर यह मुद्रा वायु एवं आकाश तत्त्व का नियमन