________________
गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...421 - विधि
दोनों हथेलियों को आमने-सामने करके अंगूठा, तर्जनी, मध्यमा और कनिष्ठिका को अन्दर की तरफ अन्तर्ग्रथित करें तथा अनामिका को फैलाते हुए उनके अग्रभागों को जोड़ने पर तथागत कुक्षि मुद्रा बनती है।122 सुपरिणाम
- • तथागत कुक्षि मुद्रा की साधना शरीरस्थ जल एवं वायु तत्त्व को संतुलित तथा जीवन प्रवाह को सुरक्षित रखती है। शारीरिक तापमान एवं रुधिर आदि की कार्यपद्धति में सहायक बनते हुए श्वसन, मल-मूत्र, रुधिर अभिसंचरण और स्वर नियंत्रण में सहायक बनती है। • स्वाधिष्ठान एवं विशुद्धि चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा प्रसुप्त अतिन्द्रिय क्षमता को प्रस्फुटित करती है। इससे खून की कमी, योनि विकार, गले, मुँह, कंठ आदि का विकार, गठिया, बहरापन आदि दूर होता है। • स्वास्थ्य एवं विशुद्धि केन्द्र को जागृत करते हुए जीवन की क्षमता एवं तीव्रता को बढ़ाती है। थायरॉइड, पैराथायरॉइड एवं प्रजनन ग्रन्थि के स्रावों को संतुलित करते हए यह मुद्रा स्वभाव नियंत्रण, आवाज नियंत्रण में सहायक बनती है। शरीरस्थ आयोडीन, कैल्शियम, कोलेस्ट्राल का नियंत्रण करती है तथा जननेन्द्रिय सम्बन्धी विकारों का शमन करती है। 95. तथागत वचन मुद्रा
भगवान बुद्ध के वचनों से सम्बन्धित यह मुद्रा गर्भधातु मण्डल के समक्ष धारण की जाती है। शेष वर्णन पूर्ववत। विधि . दोनों हथेलियों को मध्यभाग में रखें, अंगूठा, तर्जनी और कनिष्ठिका को अपने सीध पर खड़ा रखें तथा अनामिका और मध्यमा के अग्रभागों को परस्पर मिलाने से तथागत वचन मुद्रा बनती है।113 सुपरिणाम
• तथागत वचन मुद्रा के प्रयोग से शरीरस्थ अग्नि एवं वायु तत्त्व संतुलित रहते हैं। यह स्नायु तंत्र की स्थिति स्थापकता बनाए रखती है और विचार शक्ति को सुदृढ़ कर श्वसन एवं मल-मूत्र की गति में सहायक बनती है। • मणिपुर एवं