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गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...345 विधि ___ दोनों हथेलियों को समीप करें, अंगूठों को एक साथ ऊपर उठायें, तर्जनी को भी ऊपर उठायें, मध्यमा को प्रतिपक्ष के अग्रभाग से संयुक्त करें, अनामिका को हथेली के बाहर मोड़ें तथा कनिष्ठिका को सीधी रखने पर 'गे-बकु-गोको' मुद्रा बनती है।38 सुपरिणाम
• यह मुद्रा पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व का संतुलन स्थापित करते हुए हड्डी, त्वचा, मांसपेशी, नाखुन, हृदय आदि का संतुलन करती है तथा विष द्रव्यों एवं विजातीय तत्त्वों का निकास करती है।
• मूलाधार एवं सहस्रार चक्र को जागृत कर यह मुद्रा शारीरिक आरोग्य, कार्य दक्षता, ओजस्विता आदि में वर्धन कर आन्तरिक ज्ञान को प्रकट करती है तथा समाधिस्थ अवस्था की प्राप्ति करवाती है।
• गोनाड्स एवं पिनियल ग्रंथियों को जागृत कर यह मुद्रा वंध्यत्व, प्रजनन, मासिक धर्म, हस्तदोष, स्वप्न दोष आदि समस्याओं का निवारण करती है तथा कामेच्छाओं पर नियंत्रण, निर्णयात्मक एवं नेतृत्व शक्ति का विकास करती है। 39. गे-इन्-मुद्रा
यह मुद्रा गर्भधातु मण्डल एवं अन्य धार्मिक क्रियाओं में चार प्रकारों से दर्शायी जाती है। इनमें प्रासंगिक साम्यता है किन्तु प्रयोजन एवं प्रविधि में अन्तर है। प्रथम विधि
यह मुद्रा एक हाथ से करते हैं और यह धर्मशत्रुओं के विनाश की सूचक है। हथेली को सामने की तरफ कर अंगठे को हथेली में मोड़ें, मध्यमा और अनामिका को अंगूठे के ऊपर मोड़ें तथा तर्जनी और कनिष्ठिका को पहले जोड़ से मोड़ने पर गे-इन् मुद्रा बनती है।39 सुपरिणाम
• इस मुद्रा का प्रभाव पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व पर पड़ता है। इससे थायरॉइड, पेराथायरॉइड, टान्सिल्स, लार रस आदि पर नियंत्रण होता है। मानसिक चेतनाओं का पोषण होता है। शरीर बलशाली एवं सत्त्वशाली बनता है।