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भारतीय बौद्ध में प्रचलित मुद्राओं का स्वरूप एवं उनका महत्त्व ...283 के चार बीजाक्षरों में से एक है। इस मन्त्राक्षर रूप मुद्रा को सोखने या चूसने की सूचक माना गया है। दोनों हाथों में समान मुद्रा होती है। इसका मन्त्र है- 'जह् हूम् बम् होह्।' विधि
दोनों हाथों की मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग अंगूठों के अंतिम पोर को स्पर्श करें, तर्जनी और कनिष्ठिका अपने प्रतिपक्षी अंगुलियों से क्रॉस करते हुए जुड़ें, बायां हाथ दायें हाथ के ऊपर कलाई के स्थान से क्रॉस करता हुआ रहे, इस भाँति हूम् मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• यह मुद्रा स्वाधिष्ठान, मूलाधार एवं सहस्रार चक्र को प्रभावित करते हुए शरीर को कांतिवान, वाणी को प्रखर, साधक को निर्विकल्प एवं निर्विकार बनाती है।
• प्रजनन एवं पिनियल ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह शरीरस्थ पोटैशियम, सोडियम एवं पानी को संतुलित रखती है, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों का निवारण करती है तथा नेतृत्त्व शक्ति, नियंत्रण शक्ति एवं निर्णायक शक्ति का विकास करती है।
• इस मुद्रा के प्रयोग से शक्ति, स्वास्थ्य एवं ज्ञान केन्द्र सक्रिय होते हैं। इससे पूर्वजन्म की स्मृति एवं प्राग् अवबोध होता है। साथ ही आन्तरिक ऊर्जा एवं विद्युत का ऊर्ध्वारोहण भी होता है। 9. जह् मुद्रा
पूर्ववत यह मुद्रा वज्रायन बौद्ध परम्परा से सन्दर्भित है। यह मुद्रा वज्रायना देवी तारा के सामने प्रार्थना रूप में की जाती है तथा प्रार्थना या आह्वान के चार बीजाक्षरों में से प्रथम अक्षर है। इस मुद्रा को ठुड्डी के नीचे और छाती के सामने धारण करते हैं। इसका मन्त्र है- 'जह् हुम् बम् होस्।' विधि
दायें हाथ को सामने की तरफ रखें, मध्यमा और अनामिका के अग्रभागों को अंगूठे के अंतिम पोर से स्पर्श करवायें, तर्जनी और कनिष्ठिका को सीधी रखें। बायीं हथेली को मध्यभाग में दायें हाथ के सामने रखें, बायें हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दायें हाथ की अनामिका के अग्रभाग से संयुक्त करें, मध्यमा और अनामिका दायें हाथ की तरह मुड़ी हुई एवं अंगूठे के अंतिम जोड़