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भगवान बुद्ध की मुख्य 5 एवं सामान्य 40 मुद्राओं की...
मुद्रा भगवान बुद्ध द्वारा अर्पित जल स्वीकार करने की सूचक है। इस मुद्रा में पात्र के भीतर जल ग्रहण किये हुए का चित्र भी दर्शाया गया है।
इस मुद्रा को वीरासन या वज्रासन में बैठकर किया जाता है।
विधि
दोनों हथेलियों को इस भाँति रखें कि वह किसी प्याले या भिक्षा पात्र को उसकी सतह से धारण की हुई दर्शित हो तथा उसे दायें घुटने के ऊपर रखने पर उपरोक्त मुद्रा बनती है। 32
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सुपरिणाम
• यह मुद्रा आकाश एवं पृथ्वी तत्त्व को संतुलित रखती है। इससे शरीर बलिष्ठ बनता है एवं भारीपन दूर होता है। इससे हृदय सम्बन्धी रोगों का भी शमन होता है। • इस मुद्रा के प्रभाव से मूलाधार एवं आज्ञा चक्र जागृत होते हैं।
। साधक को निरोगी अवस्था, कार्य दक्षता, बौद्धिक कुशाग्रता एवं एकाग्रता की प्राप्ति होती है। • शक्ति एवं दर्शन केन्द्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा विभाव दशा जैसे कि काम-क्रोध आदि का उपशमन करती है। जिससे एकाग्रता, शांति, स्वानुभूति आदि का वर्धन होता है ।
30. पेंग्- सोंग्- पिचरनचरथम् मुद्रा (वृद्धावस्था सम्बन्धी उपदेश की सूचक)
भगवान बुद्ध के जीवन चरित्र को प्रस्तुत करने वाली 40 मुद्राओं में से यह तीसवीं मुद्रा है। यह थाई के बौद्ध वर्ग में सर्वाधिक स्वीकृत है। भारत में इसे निद्रातहस्त-निद्रातहस्त मुद्रा कहते हैं । मुद्रा वर्णन के निर्देशानुसार भगवान बुद्ध इस मुद्रा में विशेषकर बुढ़ापे की निर्बलता, जर्जरता, क्षणिकता का उपदेश दिया करते थे इसलिए यह मुद्रा उसी उपदेश की सूचक है। यह संयुक्त मुद्रा वीरासन या वज्रासन में की जाती है।
विधि
दोनों हाथों को शिथिल रखते हुए हथेलियों को अधोमुख रूप से घुटनों पर रखें तथा अंगुलियों को फैलायी हुई रखने पर उपरोक्त मुद्रा बनती है | 33