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4... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... ____पंचाशक प्रकरण के अनुसार आप्तवचन के अंशमात्र भी विपरीत प्रतीत होने वाले अनुष्ठानों को यदि द्रव्यस्तव कहा जाए तो अतिव्याप्ति दोष लगता है।24
शंका- जिनाज्ञा के विरुद्ध होने वाले अनुष्ठान भी द्रव्यस्तव में परिगणित होंगे या नहीं?
समाधान- यदि ऐसा माने कि वीतराग परमात्मा से सम्बन्ध मात्र होने के कारण कोइ भी अनुष्ठान द्रव्यस्तव हो जाएगा तो परमात्मा की निंदा करना या गाली देना भी द्रव्यस्तव कहलाएगा क्योंकि यह भी तो वीतराग से सम्बन्धित है। यदि ऐसा कहें कि गाली एक अनुचित क्रिया या व्यवहार विरुद्ध क्रिया होने से द्रव्यस्तव नहीं हो सकती। जिनवाणी त्रिकाल सापेक्ष है, अत: वीतराग द्वारा निषिद्ध कार्य द्रव्यस्तव या भावस्तव हो ही नहीं सकते। दूसरा तथ्य यह है कि वीतराग सम्बन्धी विपरीत अनुष्ठान लोक व्यवहार के विरुद्ध हो यह जरूरी नहीं। परन्तु जिनाज्ञा के अनुसार बहुमानपूर्वक उचित कार्य करना ही द्रव्यस्तव है और वही कार्य भावस्तव का हेतु है। आप्तवचन के विरुद्ध कार्य कभी उचित हो ही नहीं सकते। ___पंचाशक प्रकरण में यह भी कहा गया है कि जो अनुष्ठान औचित्य के साथ आदर भाव से सर्वथा शून्य हो, ऐसा अनुष्ठान जिनेन्द्र देव से सम्बन्धित होने पर भी द्रव्यस्तव नहीं होता क्योंकि आस्थाशून्य अनुष्ठान कभी भी भावस्तव का हेतु नहीं बन सकता। जो अनुष्ठान भावस्तव का कारण नहीं बने वह द्रव्यस्तव नहीं कहला सकता क्योंकि शास्त्रों में द्रव्य शब्द लगभग किसी तरह की
औपचारिकता के बिना योग्यता के अर्थ में रूढ़ है अर्थात जिसमें भावरूप में परिणत होने की योग्यता हो उसे ही द्रव्य शब्द से सम्बोधित किया गया है।25 त्रिविध प्रकारी पूजा
जैनाचार्यों ने अनेक प्रकार से त्रिविध पूजाओं का उल्लेख किया है।
आचार्य हरिभद्रसूरि षोडशक प्रकरण में कहते हैं कि कई आगमज्ञाता काय योग आदि की प्रधानता के आधार पर त्रिविध पूजा का वर्णन करते हैं। तदनुसार काया आदि की शुद्धि से युक्त एवं अतिचार रहित पूजा ही श्रेष्ठ है।26
प्रथम प्रकार- काय योग आदि की दृष्टि से जिनपूजा के निम्न तीन प्रकार हैं-27 1. काययोग प्रधान 2. वचनयोग प्रधान और 3. मनोयोग प्रधान।