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अनुभूति की रश्मियाँ
वर्तमान भौतिक परिवेश एवं प्रगति के दौर ने मानव जगत को व्यावहारिक विकास के चरम शिखर पर लाकर खड़ा कर दिया है। परंतु आध्यात्मिक उत्थान की तलहटी हमारे चरणों के नीचे से खिसकती जा रही है। साधन और सुविधाएँ जितनी बढ़ रही हैं, असंतोष एवं अशांति के बादल उतने ही अधिक लहरा रहे हैं। भौतिक चकाचौंध में लिपटा हुआ आज का संसार एक सुंदर डिब्बे में बंद 'Atom bomb की तरह ही है। जिसकी सुंदरता देखकर पथिक उसे मार्ग से उठा तो लेता है परन्तु उसकी आंतरिक विनाश शक्ति पथिक के जीवन को ही नष्ट कर देती है। जगत के इसी बाह्य Wrapper को हटाने का और आन्तरिक दूषित वृत्तियों को प्रकट करने का कार्य जिनवाणी एवं जिन स्थापना करती है।
आर्य संस्कृति में मन्दिरों को आत्म शान्ति प्राप्त करने का Power house माना है। आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ने के लिए All Clear National Highway है। मन्दिर में विराजित जिनप्रतिमा जीव को सत्य का साक्षात्कार करवाने में दिव्य दर्पण के समान हैं। ऐसे परम विशुद्ध स्थल में जिनबिम्ब परम आनंद की अनुभूति करवाता है। शुद्ध भाव एवं विरक्ति पूर्वक की गई प्रत्येक क्रिया प्रगाढ़ कर्मों की निर्जरा में हेतुभूत बनती है। इसीलिए पंडित कपूरचंदजी कहते हैं
श्रीजिनवरजी की सेवा सारे, सो भव भय दूख दूर निवारे। यही बात आचार्य मानतुंगसूरि ने भक्तामर स्तोत्र में कही है
सम्यक् प्रणम्य जिनपाद युगं युगादा ।
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए देवचंद्रजी महाराज संभवनाथ भगवान के स्तवन में कहते हैं
जन्म कृतारथ तेहनो रे, दिवस सफल पण तास।
जगत शरण जिन चरण ने रे, वंदे धरिय उल्लास।। इन सभी कथनों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा को किया गया वही वंदन-पूजन आदि सफल हैं जो सम्यक प्रकार से अर्थात विधिपूर्वक एवं आन्तरिक