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होने
398... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... में रचित थी, गायन हेतु उनकी रचना लोकभाषा में होने लगी और वे सुगम से अधिक प्रचलित भी हुई। इस प्रकार की पूजा कृतियों में सकलचंद्रजी कृत सत्रहभेदी पूजा एवं इक्कीस प्रकारी पूजा प्राचीनतम है । अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में इस प्रकार की अनेक पूजाएँ रची गईं परन्तु उनकी शब्द संरचना, कवित्व गुण, शास्त्रीय रागबद्धता आदि पूर्व रचनाओं से न्यून है। इसी के साथ अनेक परम्पराओं में स्व-स्व परम्परा के मुनियों की रचनाएँ ही गाई जाती है।
यदि वर्तमान में प्रचलित पूजा पद्धति की समीक्षा करें तो आजकल प्रयुक्त हो रहे द्रव्यों की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। कृत्रिम द्रव्यों के रासायनिक प्रभावों से जिन प्रतिमाओं को क्षति पहुँच रही है। साथ ही वालाकुंची आदि के बढ़ते प्रयोग से प्रतिमाएँ खंडित एवं क्षतिग्रस्त हो रही है। लोगों के मन में भी जिनपूजा के प्रति पूर्ववत अहोभाव नहीं रहा है एवं कई स्थानों पर स्वार्थानुसार परम्पराएँ अपनाई जा रही है । पूजारियों के भरोसे मंदिर के हर काम को छोड़ने से जिनाज्ञा पूर्वक वे कार्य सम्पन्न भी नहीं हो रहे हैं। अतः श्रावक वर्ग को जागृत बनते हुए कोई सार्थक कदम उठाना चाहिए। वरना लोगों की बदलती विचारधारा एवं जीवनशैली के कारण जिनमंदिर मात्र ऐतिहासिक कलाकृतियों के उदाहरण बनकर न रह जाएं और अन्य धर्मों की भाँति जैन धर्म भी समाप्ति की कगार पर न आ जाए।