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________________ जिनपूजा सम्बन्धी विषयों की विविध पक्षीय तुलना... ...393 नहीं है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में देश-काल-भाव आदि के कारण अनेक फेरबदल देखे जाते हैं। यदि आगमकाल से अब तक प्रवर्तित पूजा पद्धति का अनुसंधान किया जाए तो अनेकविध परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। जिनमें से कुछ लाभदायक है तो कुछ हानिकारक भी। अधिकांश परिवर्तन प्राकृतिक न होकर मनुष्यकृत या परिस्थिति कृत है। __ पूर्वकालीन पूजा पद्धति सुगम एवं सर्वजन साध्य थी, क्योंकि वहाँ किसी भी प्रकार की सामग्री, नियम या पद्धति का बंधन नहीं था। परन्तु जब से सर्वोपचारी पूजा का अधिक प्रचार बढ़ने लगा तब से ही जिनपूजा अधिक व्यय साध्य एवं श्रमसाध्य होने के साथ-साथ भावहीन होने लग गई। नित्य स्नान एवं विलेपन पूजा का जैसे-जैसे वर्चस्व बढ़ता गया, वैसे-वैसे उसमें प्राणतत्त्व रूप रही सहजता एवं सुसाध्यता घटती गई। ऐसा नहीं है कि इनके मात्र दुष्परिणाम ही है। कई सुपरिणाम भी है परंतु वर्तमान जीवनशैली एवं मानसिकता में पनप रहे अभावों के कुछ मुख्य कारण निम्न हो सकते हैं। जैसे • पूर्वकाल में जब प्रसंग विशेष उपस्थित होने पर मूर्तिस्नान करवाया जाता था तब उसकी विशेष तैयारियां की जाती थी। अभिषेक योग्य जल को विविध सुगंधित पदार्थों से सरस गंधयुक्त बनाया जाता था किन्तु वर्तमान में नित्यस्नान हेतु शुद्ध सादे जल एवं ताजे दूध की व्यवस्था भी भारी लगती है। • पर्व विशेष में स्नान होने के पश्चात विलेपन हेतु भी उत्तमोत्तम पदार्थों का संकलन किया जाता था। उन द्रव्यों की सुगंध से मात्र मन्दिर ही नहीं अपितु आस-पास का क्षेत्र भी कई दिनों तक महकता रहता था एवं दर्शनार्थियों एवं पूजार्थियों को एक विशेष आनंद की अनुभूति करवाता था। वर्तमान में नित्य विलेपन द्रव्यों से सुगन्धित पदार्थ तो प्राय: विलुप्त हो ही चुके हैं तथा बढ़ती महंगाई एवं कृत्रिम पदार्थों के चलन के कारण शुद्ध केसर, बरास एवं चंदन मिलना भी मुश्किल हो गया है। सर्वांग विलेपन का स्थान नवांग तिलक तक सीमित रह गया है। • जिनबिम्ब की स्नान क्रिया इन्द्र द्वारा कृत परमात्मा के जन्माभिषेक का प्रतीक एवं अनुकरण है। पूर्व काल में स्नानादि के प्रसंग पर साधु-साध्वी एवं गृहस्थ दूर-दूर से हजारों की संख्या में उपस्थित होते थे। भक्तगण प्रक्षाल एवं अंगलुंछन करने के लिए कतार में प्रतिक्षारत रहते थे वहीं आज इसके विपरीत
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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