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390... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
भी मात्र भरे हुए जल का कलश रखने का ही विधान था। उससे अभिषेक करने का वर्णन कहीं भी नहीं है। जबकि अर्वाचीन परम्परा में जलपूजा का प्रथम स्थान है।
यदि जिनपूजा में प्रयुक्त उपकरण एवं उपादानों का विकास एवं ह्रास विषयक अध्ययन करें तो आगमकाल में इनका वर्णन ज्ञानाधर्मकथासूत्र, राजप्रश्नीय सूत्र, जीवाभिगमसूत्र और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र में प्राप्त होता हैं । इनमें भी तीर्थोदक, तीर्थमृतिका, सर्वौषधि, सिद्धार्थक आदि का प्रयोग सिद्धायतन की प्रतिमाओं के लिए नहीं होता था। मध्यकालीन पूजा सामग्री में यक्षकर्दम, गोरोचन, सर्वौषधि, सिद्धार्थक, तीर्थोदक, पदार्थ, तीर्थ मृत्तिका का उपयोग प्रतिष्ठा प्रसंग पर होता था। क्षणैः क्षणैः विक्रम की आठवीं शती से सिद्धार्थक, गौरोचन आदि का प्रयोग सर्वोपचारी पूजा में होने लगा। कुछ आचार्यों ने पंचामृत प्रयोग का भी समर्थन किया किन्तु सामान्य जनता इससे सहमत नहीं थी। अर्वाचीन काल में अनेकशः नए उपकरणों का समावेश हुआ तो कई प्राचीन उपकरण एवं सामग्री का प्रयोग नहीवत या लुप्त ही हो गया। जैसे कि मध्यकाल में वासक्षेप पूजा नियमित रूप से होती थी। वहीं अर्वाचीन काल में इसका आचरण नहींवत रह गया है।
पूर्वकाल और मध्यकाल में प्रसंग विशेष पर होने वाली मूर्ति स्नान में जहाँ प्रक्षाल हेतु केसर, कस्तूरी, कपूर आदि पदार्थों को मिलाकर सुगन्धित जल तैयार किया जाता था वहीं अर्वाचीन काल में शुद्ध जल एवं पंचामृत तक यह प्रक्रिया सीमित हो गई है। मध्यकाल में अंगलुंछन हेतु भी शुद्ध, सुगन्धित एवं नूतन वस्त्रों का प्रयोग होता था जो अर्वाचीन काल में तीन अंगलुंछन वस्त्र एवं वालाकुंची में परिवर्तित हो गया है।
आगमकालीन पूजा विधानों में आरती, मंगलदीपक का उल्लेख देखने में नहीं आता। इनके उल्लेख मध्यकालीन ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। राजप्रश्नीय, जीवाभिगम आदि आगमों में चौदह प्रकार की पूजाओं का ही उल्लेख है। वही मध्यकाल में सत्रह प्रकार की पूजा के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
सत्रह भेदों के अतिरिक्त मध्यकाल के प्रारंभ में पंचोपचारी, अष्टोपचारी एवं सर्वोपचारी पूजन का प्रारंभ हुआ हो ऐसा भी ज्ञात होता है । आचार्य हरिभद्रसूरि रचित पूजाविंशिका, पंचवस्तुक आदि में इन तीनों का निर्देश एवं निरूपण