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जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भो में ...309
हेतु है।/2
प्रकरणसम्मुच्चयांतर्गत एक प्रकरण में श्रावक के चातुर्मासिक नियमों का वर्णन करते हुए लिखा है कि महीने में चार बार अष्टोपचारी पूजा, चार महीनों में एक वस्त्र पूजा, गृह मंदिर अथवा गाँव मंदिर में एक बार प्रक्षाल, अष्टमीचतुर्दशी के दिन मन्दिर की प्रमार्जना करना और प्रदक्षिणा देना, जिनभवन सम्बन्धी दश आशातनाओं को टालना, गाँव में रहते प्रतिदिन शुद्ध वस्त्र पहनना, ज्ञान पंचमी के दिन विशेष पूजा करना और एक ज्ञानपूजा करना चाहिए। ___ इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि उस समय में स्नान विलेपन आदि विशेष दिनों में ही होता था। ___ आचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार में निसीहि त्रिक पूर्वक पुष्प, अक्षत एवं स्तुति द्वारा त्रिविध पूजा करने का उल्लेख है।74 इसी की टीका में आचार्य श्री सिद्धसेनसूरि कहते हैं कि उपर्युक्त गाथा में पुष्पादि उपलक्षणभूत पदार्थों का ही ग्रहण किया है इसलिए अमूल्य रत्न, सुवर्ण, मोती आदि के आभरणों से भगवान को अलंकृत करना, विचित्र पवित्र वस्त्रों से परिधापन करना, परमात्मा के आगे सिद्धार्थक (सर्षप) शाली, तंदुल आदि से अष्ट मंगल का आलेखन करना, श्रेष्ठ नैवेद्य, मंगल दीपक, दधि, घृत, जल प्रभृति पदार्थों को चढ़ाना, भगवान के ललाट में गोरोचन, कस्तुरी आदि का तिलक करना और अन्त में आरती उतारना यह सब समझ लेना चाहिए।75
योगशास्त्र में जिनपूजा सम्बन्धी श्रावक कर्तव्यों का वर्णन करते हुए हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं कि गृहस्थ सर्वप्रथम पवित्र होकर गृह मन्दिर में पुष्प, नैवेद्य और स्तोत्र द्वारा देवपूजा करके यथाशक्ति प्रत्याख्यान करे। फिर संघमन्दिर में जायें। वहाँ विधि पूर्वक प्रवेश कर परमात्मा की तीन प्रदक्षिणा करें और पुष्पादि पदार्थों से पूजा करके उत्तम स्तवनों से गुणगान करें।76 आचार्य सोमप्रभसूरिजी भी अष्टप्रकारी पूजा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ पुष्प, गंध, अक्षत, फल, जल, नैवेद्य, धूप और दीपक इन आठ प्रकारों से की जाने वाली जिनपूजा अष्टविध कर्मों का नाश करने वाली है। इनमें से एक प्रकार की भी पूजा करके नन्दन प्रमुख अनेक पुरुष कल्याण की परम्परा को प्राप्त हुए हैं।