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जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भो में ...297 को ही अमान्य कर दिया। परंतु उन्हीं लोगों के द्वारा मान्य नन्दीसूत्र में अन्य आगम सूत्रों की सूची भी प्राप्त होती है। स्वमान्य आगम ग्रन्थों का विशद अर्थ करने हेतु अमान्य आगमों की टीका आदि का सहारा फिर क्यों लिया जाता है? जिनप्रतिमा को अमान्य करने वाले यही लोग गुरु की फोटो आदि मानते हैं एवं इस पंथ का अनुयायी वर्ग जिनेश्वर परमात्मा के स्थान पर मिथ्यात्वी देवीदेवताओं को मानने एवं पूजने लगे हैं। अत: सुज्ञ आचार्यों को स्वयं विचार करना चाहिए। आगम साहित्य के आलोक में जिनपूजा
कई लोग यह कहते हैं कि जिन पूजा शास्त्र सम्मत नहीं है? कई लोग कहते हैं कि जैन धर्म अहिंसा प्रधान है एवं जिनपूजा हिंसा प्रधान। परंतु उनकी यह मान्यता गलत है। आगम ग्रन्थों में विविध प्रसंगों में जिनपूजा का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। जहाँ तक मूल आगमों का प्रश्न है, उसमें निम्न वर्णन मिलता है।
प्रथम अंग आगम श्रीआचारांग सूत्र में भगवान महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ को पार्श्व अनुयायी बताते हुए कहा है कि उन्होंने श्री जिनेश्वर देव की पूजा के लिए लाखों रुपए खर्च किए और जिनप्रतिमा की पूजा की। इस अधिकार में “आयअ" शब्द देव पूजा के लिए प्रयुक्त हुआ है।
स्थानांगसूत्र के तीसरे स्थान में तीन प्रकार के 'जिन' का वर्णन है1. तओ जिणा पण्णत्तं तं जहा-ओहिनाण जिणे, मण पज्जवनाण जिणे, केवल नाण जिणे। 2. तओ अरहा पण्णत्तं तं जहा-ओहिनाण अरहा, मण पज्जवनाण अरहा, केवल नाण अरहा। जिन तीन प्रकार के होते हैं1. अवधिज्ञानी जिन 2. मनः पर्यवज्ञानी जिन 3. केवलज्ञानी जिन। ... अरिहंत तीन प्रकार के कहे गये हैं- 1. अवधिज्ञानी अरिहंत 2. मनः पर्यवज्ञानी अरिहंत 3. केवलज्ञानी अरिहंता
यहाँ पर 'जिन' या 'अरिहंत' शब्द का उल्लेख तीर्थंकर के लिए हुआ है। स्थानकवासी आचार्य श्री अमोलकऋषिजी ज्ञाताधर्मकथा में उल्लिखित 'जिनप्रतिमा' शब्द का अर्थ कामदेव की मूर्ति करते हैं। परंतु जैन आगमों में जिन प्रतिमा का अर्थ कामदेव नहीं है। यह स्थानांग सूत्र के इस वर्णन से सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार चौथे स्थान में हिंसा की चतुर्भंगी का उल्लेख है-3