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278... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... वीतरागत्व एवं आत्मस्वरूप प्राप्ति की प्रेरणा स्वयं के द्वारा क्रिया अनुष्ठान करने पर ही प्राप्त होती है।
जिनपूजा— यह परमात्मा से Personal Connection जोड़ने का अभूतपूर्व साधन है अत: जैनाचार्यों ने पूजा आदि धार्मिक अनुष्ठान वैयक्तिक रूप में करने का ही विधान किया है।
अष्टमंगल का वैश्विक स्वरूप
मनुष्य एक संवेदनशील एवं समझदार प्राणी माना जाता है। सुख, सौभाग्य, सफलता, समृद्धि एवं सुमंगल की भावना सदा उसके मन में अनुगुंजित होती रहती है। जीवन में प्रगति के सहपथिक या संबल के रूप में उसे किसी कल्याणमित्र रूप मंगल की आवश्यकता रहती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय ऋषि - मनीषियों ने मानव कल्याण, जीवन विकास, आत्म सुरक्षा एवं लोकहित की भावना से आप्लावित होकर मंगल चिह्नों की प्ररूपणा की।
प्रत्येक धर्म एवं संप्रदाय में वस्तु, व्यक्ति या चिह्न विशेष को मंगलकारी (Lucky) या प्रगति का प्रतीक माना गया है। लोक व्यवहार में भी देखें तो शकुन-अपशकुन आदि की जो धारणा है वह मंगल या अमंगल का ही एक रूप है। व्यक्ति जब भी किसी कार्य की शुरूआत करता है तो जैसी वस्तुएँ दिखती हैं वैसी ही उसकी मानसिकता बन जाती है, जो कि उसकी सफलता या असफलता का मुख्य हेतुभूत तत्त्व बनती है। जो सफलता की सूचक या निमित्त बन जाए उसे ही मंगल रूप स्वीकार कर लिया जाता है । इन मंगल वस्तुओं की संख्या यद्यपि अनगिनत हो सकती है परंतु जैन, बौद्ध, सिक्ख एवं हिन्दू परम्परा में आठ वस्तुओं को मंगल रूप माना गया है। जिसे अष्टमंगल के नाम से भी जाना जाता है। इनमें से कुछ चिह्न समान रूप से सभी के द्वारा स्वीकार किए गए हैं तो कुछ में मत वैभिन्य भी परिलक्षित होता है ।
आठ शुभ प्रतीकों के समूह को अष्टमंगल कहा जाता है। इन आठ मांगलिक चिह्नों को कहीं पर इष्टदेवता तो कहीं शिक्षण उपकरण के रूप में माना गया है। ऐसी मान्यता है कि ये आठ विशिष्ट चिह्न अतीन्द्रिय ज्ञानी या सर्वज्ञ के ज्ञान और गुणों के अलंकार रूप में होते हैं। भारत में इन चिह्नों का प्रयोग राज्याभिषेक अलंकरण के प्रतीक रूप में किया जाता था। बौद्ध धर्म में इन्हें