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276... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... ___ पंचांग प्रणिपात मुद्रा- पंचांग प्रणिपात मुद्रा वीतराग परमात्मा एवं गुरु भगवन्तों को नमस्कार करने की मुद्रा है। इसके द्वारा समर्पण, नम्रता, विनय, लघुता आदि गुणों में विकास होता है। श्रद्धा में प्रगाढ़ता आती है। इस विधि के द्वारा कृतज्ञभाव अभिव्यक्त किया जाता है। शरीर के मुख्य पाँच अंगों में हलनचलन होने से समस्त शरीर पर अच्छा प्रभाव पड़ता। जिससे जोड़ों के विकार, मोटापा आदि दूर होते हैं और शरीर लचीला बनता है।
इसी तरह द्रव्य समर्पित करते हुए जल पूजा के समय समर्पण मुद्रा श्रद्धा, आस्था एवं भक्ति के पुट का वर्धन करती है। इसी के साथ संसार के प्रति रही आसक्ति एवं राग भाव को न्यून करने में यह मुद्रा सहायक बनती है। ___पुष्प पूजा करते हुए अर्धखुली अंजलि मुद्रा में पुष्प धारण कर परमात्मा को अर्पित किए जाते हैं। यह हृदय में अहोभाव, करुणाभाव, आदरभाव को उत्पन्न करती है।
धूप पूजा उत्थितांजलि मुद्रा में की जाती है। इसके द्वारा पाँचों अंगलियों पर Pressure पड़ता है, जिससे शरीरस्थ जल आदि पाँचों मुख्य तत्त्व प्रभावित होते हैं। ___दीपक पूजा एवं फल पूजा हेतु विवृत्त-समर्पण मुद्रा का प्रयोग होता है। इसके द्वारा आन्तरिक ज्ञान जागृत होता है।
अक्षत पूजा के संदर्भ में चतुर्दल मुद्रा एवं शिखर मुद्रा का वर्णन किया गया है। चतुर्दल मुद्रा जहाँ यह चारों गति को चूरने एवं उनकी वक्रता की सूचक है, वहीं शिखर मुद्रा दृढ़ता, विश्वास एवं मंगल कामना की सूचक है। यह जीव को संसार पार होने की प्रेरणा देती है। तर्जनी मुद्रा के द्वारा चारों गतियों की हेयता एवं मोक्षगति की उपादेयता का सूचन किया जाता है। नैवेद्य पूजा हेतु संपुट मुद्रा का उल्लेख शास्त्रकारों ने किया है। यह आहार संज्ञा को वश में करने की प्रेरणा देती है। किसी वस्तु को वश में करने या नियंत्रित करने हेतु उसे हम अपनी हथेलियों में दबा देते हैं, वैसे ही संपुट मुद्रा में नैवेद्य को धारण कर आहार संज्ञा को नियंत्रित करने की भावना की जाती है। ___ इस प्रकार विविध मुद्राओं के प्रयोग के द्वारा जहाँ मानसिक एवं आध्यात्मिक जगत का निर्मलीकरण और परिष्कार किया जाता है वहीं विभिन्न ग्रन्थियों एवं शरीरस्थ चक्रों को प्रभावित कर शारीरिक निरोगता एवं स्वस्थता को भी प्राप्त किया जा सकता है।