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जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ... 247
इसके उपरांत भी इन सांसारिक दुःखों की वजह से व्यक्ति यदि विचलित हो रहा हो अथवा उस वजह से उसका मन उन्मार्ग की ओर बढ़ रहा हो तो उसे यह सब भी परमात्मा के समक्ष ही अभिव्यक्त कर देना चाहिए। किसी कवि ने कहा है
चाहू नहीं वैभव प्रभुजी, ना ही झूठी नामना । जगबंधु अंतरयामी मेरी, एक है यही कामना ।। भव भव मिले शासन तेरा, प्रभु चरण सेवा पाऊँ मैं । शीतल चरण की छांह में, वीतराग खुद बन जाऊँ मैं ।। इससे स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा के समक्ष क्या भाव करने चाहिए। जैनाचार्यों ने अनेक स्थानों पर प्रभु पूजा, प्रभु स्मरण, स्तवन आदि के फल की चर्चा की है। वासुपूज्य स्वामी के स्तवन में देवचंद्रजी महाराज कहते हैंआप अकर्ता सेवथी हुए रे सेवक पूरण सिद्धि निज धन न दिए पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे...
हे परमात्मन्! आपकी सेवा के द्वारा सेवक इच्छित समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। आप अपनी संपदा में से किसी को कुछ नहीं देते किन्तु जो मन से आपका आश्रय ग्रहण करता है वह निश्चय ही अखंड मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। इसलिए भविक प्राणियों ! बारहवें जिनराज की पूजा करो।
इससे यह ज्ञात होता है कि परमात्मा के समक्ष मात्र कर्ममुक्ति, स्वरूप प्राप्ति या आत्मसुख की ही प्रार्थना करनी चाहिए।
शेष
सुख तो धान्य के साथ घास-फूस की तरह ऐसे ही प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि वीतराग परमात्मा के समक्ष प्रार्थना क्यों की
जाए ?
प्रार्थना के द्वारा परमात्मा के प्रति प्रेम एवं समर्पण भाव में वृद्धि होती है। अंतर में शुभ भावों का सिंचन होता है। परमात्मा के प्रति रहे प्रशस्त राग एवं प्रेम भाव के कारण अंतर में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एवं 'सवि जीव करूं शासन रसी' की भावना उत्पन्न होती है। सभी जीवों के प्रति आत्मीय भाव जागृत होता है। राग-द्वेष, ईर्ष्या- माया आदि कषाय भावों का शमन होता है। आंतरिक शांति एवं शारीरिक स्वस्थता की प्राप्ति होती है।