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जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता एवं... ...231 पूर्व साहित्य के अध्ययन से जो ज्ञान नहीं हो सकता, वह अन्त:ज्ञान हमें जिनबिम्ब के दर्शन से हो जाता है। शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरणों का उल्लेख है जैसे- आर्द्रकुमार का दृष्टांत, जिनप्रतिमा आकार के मत्स्य को देखने से जातिस्मरण ज्ञान होना, शय्यंभव भट्ट का जिनप्रतिमा दर्शन से प्रतिबोधित होकर जिन धर्म स्वीकार करना आदि।
अमीर को देखकर गरीब को अपनी गरीबी का भान होता है और उसे अपनी गरीबी खटकने लगती है। यदि वह निर्धनता मिटाने हेतु संकल्पबद्ध होता है तो पुरुषार्थ के द्वारा लक्ष्य भी प्राप्त कर लेता है। ठीक ऐसे ही परमविशुद्ध वीतराग परमात्मा के दर्शन करने से हमें अपनी अशुद्ध आत्म अवस्था का भान होता है। विशुद्ध अवस्था प्राप्ति में बाधक कर्मावरण खटकने लगता है तथा जीव स्व-स्वरूप प्राप्ति हेतु प्रयासरत हो जाता है।
परमात्म स्वरूप से अपनी तुलना करने पर स्वयं की कमियों का ज्ञान होता है। जिनेश्वर परमात्मा ने जिस प्रकार जिनत्व पद की साधना करके मुक्ति का रसपान किया, वैसी ही क्षमता हमारी आत्मा में भी उत्पन्न हो तथा वह भी परमात्म पद की ओर अग्रसर हो, इसी ध्येय से जिनेश्वर देव का पूजन, वंदन, चैत्यवंदन आदि किया जाता है। भाव एवं भक्ति की विह्वलता ही आत्मा को उत्थानक्रम की ओर ले जा सकती है और परमात्म दशा की उपलब्धि करवा सकती है।
महापुरुषों ने कहा है जिस प्रकार छिद्र युक्त हथेली में जल नहीं टिकता वैसे ही जिनेश्वर परमात्मा के दर्शन से पाप नहीं टिकते। इस प्रकार जिनदर्शन अनंत गुणों का निधान है। जिनपूजा एक रहस्यमय अभियान
जिनपूजा का यदि आद्यन्त अध्ययन करें तो इसमें सम्मिलित प्रत्येक क्रिया अनुष्ठान अपने आप में अलौकिक एवं अनेकविध रहस्यों से परिपूर्ण प्रतीत होगा। इन विधानों के द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास तथा सामाजिक सौहार्द एवं संस्कारों का निर्माण होता है। इसी के साथ वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और वैश्विक शांति की स्थापना की जा सकती है। पूजा विधानों के अन्तर्गत पाँच अभिगम, दसत्रिक, सप्तशुद्धि आदि बहुविध विधि-विधानों का समावेश होता है जिनके द्वारा जीवन को नई दिशा दी जा सकती है।