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अध्याय-7 जिन पूजा विधि की त्रैकालिक आवश्यकता
एवं अनुभूतिजन्य रहस्य
__ पूजोपासना का महत्त्व प्रत्येक धर्म एवं सम्प्रदाय में रहा हआ है। किसी न किसी रूप में इसका आलंबन मनुष्य के लिए परमावश्यक है। जिनपूजा, जिनमन्दिर एवं जिनप्रतिमा यह आत्मोत्थान के विशिष्ट सहायक तत्त्व हैं। परमात्म दशा को उपलब्ध करने में Reservation का कार्य करते हैं क्योंकि गुणीजनों का आदरसम्मान गुणवृद्धि में हेतुभूत बनता है। इसीलिए कहा गया है
गुणी से गुण नहीं भिन्न है, जिनपूजा गुणधाम ।
गुणी पूजा गुण देत है, पूर्ण गुणी भगवान ।। __ जीवन में सन्मार्ग को प्राप्त करने एवं उस पर निरंतर गतिशील रहने हेतु धर्म का आश्रय जरूरी है। जिंदगी के दुविधापूर्ण क्षणों में सत्यबोध, समाधि एवं समाधान देने में जिनपूजा एक आवश्यक चरण है।
कई लोग कहते हैं कि जिनप्रतिमा तो जड़ है, वह कछ भी देने में असमर्थ है तो फिर जिनपूजा की आवश्यकता क्यों? जिनप्रतिमा जड़ है, अत: वह हमें कुछ दे नहीं सकती। यह जितना सत्य है उतना यथार्थ यह भी है कि जिनप्रतिमा के दर्शन मात्र से आत्म-परिणामों में शुद्धता, विचारों में पवित्रता, भावों में निर्मलता एवं वैराग्य भाव का वर्धन अवश्य होता है।
सुज्ञ साधक वर्ग भगवान को प्रसन्न करने अथवा लौकिक लाभ की दृष्टि से जिनपूजा कभी नहीं करते। उनका प्रमुख उद्देश्य मात्र जैनत्व एवं जिनत्व की प्राप्ति हेतु मनोभूमि को तैयार कर उसे तद्योग्य बनाना है। जिनपूजा के माहात्म्य आदि विषयक चर्चा शास्त्रकारों ने अनेक स्थानों पर की है। परमात्मा के अगणित आकारों को व्यक्त करने का माध्यम जिनपूजा है। इसके द्वारा कृतज्ञता, लघुता, गुणानुरागिता आदि गुणों का विकास होता है एवं जीवन जीने की सही दिशा प्राप्त होती है।