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176... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... अधिक प्रभावी बनाने एवं उसमें मनोभावों को जोड़ने हेतु तद्योग्य मुद्राओं का भी निर्देश चैत्यवंदन भाष्य आदि में प्राप्त होता है।
तदनुसार चैत्यवंदन में मुख्य रूप से तीन मुद्राएँ उपयोगी बनती हैं- योग मुद्रा, जिनमुद्रा और मुक्ताशुक्ति मुद्रा। योगमुद्रा एवं मुक्ताशुक्ति मुद्रा ये हस्त मुद्राएँ हैं तथा जिनमुद्रा यह पाद मुद्रा है। पंचांग प्राणिपात एवं विनयमुद्रा का प्रयोग भी चैत्यवंदन विधि में होता है।11
पंचांग प्रणिपात मुद्रा में खमासमण दिया जाता है। नमुत्थुणं आदि स्तव सूत्र योगमुद्रा में, अरिहंत चेइयाणं आदि वंदन सूत्र जिनमुद्रा में तथा जयवीयराय आदि प्रणिधान सूत्र योगमुद्रा में बोले जाते हैं।12
पंचाशक प्रकरण के अनुसार नमुत्थुणं सूत्र को प्रणिपात सूत्र भी कहते हैं।13 इसके द्वारा नमन और स्तवन ये दो क्रियाएँ की जाती हैं। नमुत्थुणसूत्र के प्रारंभ में नमस्कार बद्ध वाक्य होने से यह प्रणिपात सूत्र कहलाता है तथा प्रारंभ में पंचांग प्रणिपात मुद्रा की जाती है। शेष भाग स्तव पाठ वाला होने से हाथों की योग मुद्रा के साथ पैरों में विनय मुद्रा या पर्यंकासन मुद्रा धारण की जाती है। अरिहंत चेइयाणं, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, लोगस्स, इरियावहियं आदि शेष दंडक सूत्र हाथों की योगमुद्रा एवं पैरों की जिनमद्रा के साथ बोले जाते हैं। जयवीयराय आदि प्रणिधान सूत्र हाथों की मुक्ताशुक्ति मुद्रा एवं पैरों की विनय मुद्रा के साथ बोले जाते हैं। चैत्यवंदन विधि एक लाभप्रद अनुष्ठान
जैन दर्शन में भावपूजा रूप चैत्यवंदन विधि का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। जितना महत्त्वपूर्ण इनका स्थान है उतना ही इस विधि का मूल्य व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जगत में देखा जाता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार चैत्यवंदन विधि में सावधानी एवं पूर्ण जागरूकता रखने से इस लोक में धन की हानि नहीं होती है और पूर्वबंधित विशेष कर्मोदय के कारण इस लोक में यदि हानि हो भी जाए तो भी वह सद्भावों का नाश नहीं करती। विपरीत परिस्थिति में भी दीनता, द्वेष, चिन्ता, व्याकुलता और भय आदि उत्पन्न नहीं होने देती। आन्तरिक प्रसन्नता एवं सदभाव होने से कर्मबंधन अल्प होता है जिससे परलोक में श्रेष्ठ वस्तुओं की उपलब्धि एवं शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति होती है।14