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अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ...165 नैवेद्य पूजा से प्राप्त हो अणाहारी स्वरूप
हे आत्म विहारी! जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद कर आपने शाश्वत अणाहारी अवस्था को प्राप्त कर लिया है। इस संसार में तो प्रत्येक क्षण आहार की प्रक्रिया चालू रहती है। भवांतर करते हुए विग्रह गति में कई बार अणाहारी अवस्था भी प्राप्त हुई किन्तु उसमें किसी भी प्रकार से आहार के प्रति लालसा कम नहीं हुई। कुछ ही क्षणों में जन्म लेने के साथ ही आहार संज्ञा पुन: प्रारंभ हो गई। हे भगवन्! कब मुझे भी आपके समान शाश्वत निराहारी अवस्था प्राप्त होगी?
हे विगताहारी! मैं आहार संज्ञा के कारण ही इस संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ। मैं जहाँ भी गया आहार के पुद्गलों को सर्वप्रथम ग्रहण किया। उन पर राग. एवं आसक्ति रखकर कर्मबंधन करता रहा। मेरे द्वारा गृहीत अब तक के आहार पुद्गलों की यदि गणना करूं तो मेरुपर्वत भी छोटा पड़ेगा फिर भी अब तक मुझे कभी तृप्ति या संतुष्टि नहीं हुई। कभी मणों खाया तो कभी कण भर के लिए भी तरसता रहा। हे करुणावन्त? दया करो? मुझे इस पीड़ा से उबारो! अपने समान शान्त-निवान्त स्थिति की प्राप्ति करवाओं।
हे शिवंकर! मैं चाहे मिष्ठान, चढ़ाऊँ या पंचविध पकवान या फिर कोई अन्य पदार्थ, आपको उससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आप तो अनाहारी पद पर स्थित हैं परन्तु यह आहार चढ़ाकर मैं अपनी आहार संज्ञा को सर्वथा नष्ट करना चाहता हूँ। दुनिया के अधिकतम सांसारिक पाप कार्य मैं इसी आहार लालसा के वशीभूत होकर करता हूँ। अत: हे निजात्मन्! मुझे भी निजरूप में रमण करवाइए।
हे वीतरागी! नैवेद्य एवं गरिष्ठ पदार्थ श्रेष्ठ, उत्तम एवं रसयुक्त आहारों में गिने जाते है। इन उत्तम पदार्थों को अर्पित करते हुए मैं यही भावना करता हूँ कि जिस आहार की आसक्ति मुझे भवोभव भ्रमण करवा रही है, इसे मैं आपके चरणों में समर्पित कर उसका निवारण कर सकूँ तथा शुद्ध आत्मदशा को प्राप्त करने में सफल हो सकूँ। फल पूजा से मिलते जीवन के उत्तम पल
जिनेश्वर परमात्मा की फलपूजा करते हुए भव्य मनुज को यही भावना करनी चाहिए कि