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________________ अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ...101 बनने की भावना के साथ धूपदानी या धूपबत्ती को दोनों हाथ से धारण करते हुए निम्न श्लोक बोलें। श्लोक - सकल कर्म महेन्धन दाहनं, विमल संवर भाव सुधूपनम् । अशुभ पुद्गल संग विवर्जितं, जिनपतेः पुरतोस्तु सुहर्षितः ।। अर्थ - धूप समस्त कर्मरूपी ईंधन को जलानेवाला है। निर्मल संवर भावों की सुगंध को प्रसरित कर अशुद्ध पुद्गल परमाणुओं को दूर करने वाला है। ऐसे उत्तम धूप से हर्षित भावयुत होकर जिनेश्वर परमात्मा की पूजा करता हूँ। दोहा- ध्यान घटा प्रगटावीए, वाम नयन जिन धूप । मिच्छत्त दुर्गन्ध दूरे टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। अमे धूप नी पूजा करीए रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु धूपघटा अनुसरिए रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु नहीं कोई तुम्हारी तोले रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु अंते छे शरण तमारूं रे, ओ मन मान्या मोहनजी अर्थ- जिस प्रकार अग्नि में धूप डालने से उसका धुँआ ऊपर की तरफ जाता है, वैसे ही ध्यान साधना द्वारा कर्मरूपी विभाव दशा अलग होने से आत्मा हल्की बनकर धुएं के समान ऊर्ध्वगति करती है। यह पूजा मिथ्यात्व रूपी दुर्गन्ध को दूर कर आत्मा स्वरूप प्राप्ति की प्रेरणा देती है। परमात्मा के समान इस लोक में कोई नहीं है अतः इस जगत में अन्तिम शरण परमात्मा ही है। मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा । दीपक पूजा- अष्टप्रकारी पूजा में पाँचवें क्रम पर दीपक पूजा की जाती है। श्लोक - भविक निर्मल बोध विकासकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनम् । सुगुण राग विशुद्ध समन्वितं दधतु भाव विकास कृतेर्चना ।। अर्थ - जिनालय में दीपक जलाने से भव्य जनों के हृदय में निर्मल सत्य ज्ञान का विकास होता है। यह दीपक सद्गुण एवं प्रशस्त राग से युक्त होने के कारण शुभ भावों का विकास करता है । दोहा द्रव्य दीप सुविवेक थी, करता दुख होय फोक । भाव प्रदीप प्रगट हुए, भासित लोकालोक ।।
SR No.006250
Book TitlePuja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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