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सम्पादकीय
जिन मंदिर आर्य प्रजा का प्रतीक है। शास्त्रों के अनुसार आर्यजन स्वभावतः ऐसे स्थानों पर रहना पसंद करते हैं जहाँ सत्संस्कारों को पल्लवित करने हेतु सकारात्मक ऊर्जा निरंतर प्राप्त होती रहे। जिनालय ऊर्जा प्राप्ति के मुख्य केन्द्र हैं। इसी कारण भारतीय संस्कृति में आराधना स्थानों का प्राधान्य है।
प्रत्येक जीव का लक्ष्य है सांसारिक दु:खों एवं परिभ्रमण से मुक्ति प्राप्त कर शाश्वत सुख को उपलब्ध करना। वर्तमान कलिकाल में जब साक्षात परमात्मा का अभाव है तब मात्र परमात्म भक्ति और उनकी वाणी पर श्रद्धा ही हमारे मुक्ति का आधार बन सकती है। ... मोक्ष प्राप्ति के लिए मानव जन्म और आध्यात्मिक साधना दोनों ही होना परमावश्यक है।प्रबल पुण्य का उदय होने पर ही दुर्लभ मानव जन्म के साथ जिनधर्म एवं सद्गुरु की प्राप्ति होती है। परंतु भौतिकता के चक्रव्यूह में व्यक्ति इस उपहार की मौलिकता को समझ नहीं पाता और इसी कारण मोक्ष मार्ग की साधना पर आगे नहीं बढ़ पाता। __ जैनाचार्यों ने मोक्ष की साधना का सरल एवं सुलभ मार्ग जिनेश्वर परमात्मा का दर्शन-पूजन एवं भाव पूर्ण भक्ति बताया है। परमात्मा की पूजा भक्ति एवं उससे होती आंतरिक अनुभूति मानव जीवन की अमूल्य पूजा है क्योंकि यही समृद्धि एक दिन सर्वोच्च स्थान प्राप्ति में हेतुभूत बनती है।
वस्तुत: तो पूजनीय के गुण ग्रहण को ही पूजा का सम्यक अर्थ माना जा सकता है। योगीराज आनन्दघनजी ने कहा भी है
__अज कुलगत केसरी लहे रे, निज पद सिंह निहाल ।
तिम प्रभु भक्ति भवि लहे रे, आतम शक्ति संभाल ।। इस प्रकार जैन परम्परा में जिन पूजा के जो विविध रूप बताए गए हैं उन सबका मुख्य लक्ष्य इतना ही है कि व्यक्ति अपने में निहित परमात्म तत्त्व को पहचाने।
परमात्मा की भक्ति, स्तुति और स्तवना के द्वारा वातावरण में कंपन उत्पन्न होना विज्ञान के लिए शोध का विषय है। इसके पीछे छिपा मनोवैज्ञानिक सत्य जैनाचार्यों के सूक्ष्म ज्ञान का विषय है। चैत्यवंदन विधि में आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि यौगिक साधनाओं की मुख्य भूमिका है जो शारीरिक स्वस्थता एवं मानसिक स्थिरता में हेतुभूत बनती है। शास्त्रीय एवं प्राचीन रागों में परमात्मा