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जिनपूजा - एक क्रमिक एवं वैज्ञानिक अनुष्ठान स्थान ...63 करना दिशात्याग त्रिक है।13 इस त्रिक में परमात्मा पर दृष्टि को स्थिर करते हुए दायीं, बायीं और पीछे की दिशाओं का त्याग किया जाता है। इसमें चित्त की चंचलता, अनुचित एवं अतिरिक्त विचारों का भी त्याग किया जाता है। इससे मन की एकाग्रता एवं तल्लिनता में वृद्धि होती है। चैत्यवंदन करते समय इधरउधर देखने से इस त्रिक का भंग होता है। परमात्मा की आशातना एवं अनादर होता है तथा मानसिक शुभध्यान में विक्षेप उपस्थित होता है।
दिशा त्याग त्रिक का पालन करते हुए निम्नोक्त सावधानियाँ आवश्यक हैं
• चैत्यवंदन करते समय मन्दिर में आने-जाने वालों को या अगल-बगल में बैठे लोगों को देखना या उनसे बाते नहीं करना चाहिए।
• जिनमन्दिर में दृष्टि को नियंत्रित एवं मर्यादित रखना चाहिए। . • परमात्मा से दृष्टि हटाकर इधर-उधर देखने से प्रभु का अविनय होता है।
और त्रिक भंग होने से आशातना भी लगती है। 7. प्रमार्जना त्रिक
प्रमार्जना का अर्थ है उपयोग पूर्वक पूंजना या साफ करना। चैत्यवंदन करने हेतु तीन खमासमण देने से पूर्व उस भूमि की तीन बार दुपट्टे के किनारों आदि से प्रमार्जना करना प्रमार्जना त्रिक कहलाता है।14 साधु भगवंत रजोहरण से, पौषधधारी चरवले से एवं अन्य श्रावक दुपट्टे की किनारी से भूमि की प्रमार्जना करते हैं। यदि खेस आदि न पहना हुआ हो तो भी दृष्टि पडिलेहन अवश्य करना चाहिए। इसे करने से अहिंसा व्रत का पालन, प्रमाद से निवृत्त एवं जिनाज्ञा का बहुमान होता है। ___ खमासमण देने से पूर्व भूमि का और खमासमण देते समय शरीर के अवयव (संडाशक) स्थानों का पडिलेहन करना चाहिए। प्रमार्जन क्रिया के द्वारा जिनवाणी को आचरण में लाने का प्रयास किया जाता है।
प्रमार्जन त्रिक में निम्न पक्षों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए• मन्दिर जाते समय श्रावकों को उत्तरासंग अवश्य धारण करना चाहिए।
• उत्तरासंग की किनारियाँ मुलायम या फंदे वाली होनी चाहिए, जिसके द्वारा जीव रक्षा सम्यक रूप से हो सके।
• वर्तमान में उत्तरासंग या खेस सिर्फ पूजा करने वाले श्रावकों द्वारा ही धारण किया जाता है। अन्य श्रावकों को भी उत्तरासंग धारण करके ही मन्दिर