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जिनपूजा – एक क्रमिक एवं वैज्ञानिक अनुष्ठान स्थान ...61 • भावपूजा करते समय अंग या अग्र पूजा विषयक चिंतन या तत्सम्बन्धी द्रव्य को लेकर संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिए।
• कुछ लोग अक्षत पूजा आदि करते हुए एक ही साथ चैत्यवंदन भी कर लेते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। एक समय में एक ही पूजा करनी चाहिए। 5. अवस्था त्रिक ___ अवस्था अर्थात जीवन की स्थिति। परमात्मा के जीवन की घटनाओं का स्मरण करना अवस्था त्रिक है। जिसकी वजह से जैन धर्म एवं श्रावकत्व प्राप्त हुआ ऐसे परमात्मा का स्मरण अहोभाव एवं सहृदयतापूर्वक प्रतिसमय करना चाहिए। परंतु सांसारिक उलझनों में उलझा हुआ मनुष्य सांसारिक विडंबनाओं में परमात्मा को विस्मृत कर देता है। अत: परमात्मा की पूजा करने के बाद उनके जीवन का स्मरण अवश्य रूप से करना चाहिए। इसी के साथ परमात्मा के जीवन से स्वयं की तुलना करते हुए स्वयं को प्रभु समान भावों से भावित करना चाहिए।
परमात्मा के च्यवन से लेकर निर्वाण तक की पाँच घटनाओं को तीन भागों में विभाजित किया गया है। इन्हीं तीन अवस्थाओं के चिंतन को अवस्था त्रिक कहा जाता है।12
तीन अवस्थाओं के नाम निम्न हैं- 1. पिण्डस्थ अवस्था 2. पदस्थ अवस्था और 3. रुपातीत अवस्था।
1. पिण्डस्थ अवस्था- पिण्ड अर्थात देह या शरीर। जिसके माध्यम से परमात्मा की दैहिक अवस्था का चिंतन किया जाए वह पिण्डस्थ अवस्था है। इसमें केवलज्ञान की प्राप्ति होने से पूर्व तक की अवस्थाओं का चिंतन किया जाता है। इसके अन्तर्गत जन्म, राज्य एवं श्रमण अवस्था का समावेश हो जाता है। प्रतिमा के परिकर आदि को देखकर उनकी बाल्य अवस्था, ऋद्धि, मुकुट, आंगी आदि को देखकर राज्य अवस्था एवं मण्डित सिर को देखकर श्रमण अवस्था का चिंतन किया जाता है। __परमात्मा ने इस देह में रहते हुए कैसे जीवन जीया, किस प्रकार अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया, जगत जीवों के प्रति उनकी करुणा, विश्वकल्याण आदि की भावना का चिंतन करते हुए उन्हें जीवन में लाने का संकल्प करना
चाहिए।