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नये संस्करण का प्रकाशकीय
ऋषिभाषित ग्रन्थ की ऐतिहासिकता व इसमें वर्णित 45 ऋषियों की कथाएँ भारतीय संस्कृति को उजागर करती हैं। कालक्रम के अनुसार यह ग्रन्थ ई.पू. तीसरी सदी अथवा ई.पू. 5वीं सदी माना है। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ही इस ग्रन्थ की रचना हुई। इसकी ऐतिहासिकता भाषा के आधार पर भी इस ग्रन्थ में स्पष्ट की गई है। शुब्रिग जैसे विद्वान ने भी इस ग्रन्थ को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझते हुए संस्कृत टीका से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया, जिसे इस ग्रन्थ में सम्मिलित किया गया है।
इस ग्रन्थ में जैन, बौद्ध, वैदिक सभी ऋषि-मुनियों की कथाओं को लिया गया है। इसमें नारद, असितदेवल, अंगिरस, द्वैपायन, याज्ञवल्क्य आदि-आदि ऋषि-मुनियों के उपदेशों का वर्णन प्रस्तुत किया है। जैन परम्परा अनुसार 20 ऋषि तीर्थंकर नेमिनाथ के समय के हैं, 15 पार्श्वनाथ काल के तथा 10 महावीर के काल के माने गये हैं। इस ग्रन्थ की महत्ता व प्रसिद्धि इतनी अधिक रही कि इसे पुन: जैन विद्वत् जगत के प्रमुख विद्वान प्रो. सागरमल जैन द्वारा संपादित संवर्द्धित कर प्रकाशित किया जा रहा है।
अत्ल लिमिटेड द्वारा प्राकृत भारती अकादमी को सी.एस.आर. कार्यक्रम के अन्तर्गत सांस्कृतिक कार्यकलापों के अन्तर्गत पुस्तकों के प्रकाशन हेतु सहयोग दिया गया, उसके लिए हम विशेष आभार व्यक्त करते हैं। प्रकाशन से जुड़े सभी सदस्यों को धन्यवाद!
देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर