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धावन्तं सरसं सरिसंतारं, सच्छं दाढिं सिंगिणं । दोसभीरू विवज्जेन्ती, पावमेवं विवज्जए ।।12।।
12. (जैसे) तीव्र वेग से प्रवहमान स्वच्छ एवं मधुर जल तथा दौड़ने वाले दाढ और श्रृंग वाले पशुओं को देखकर भीरु ( चोट आदि लग जाने के भय से) उस मार्ग से हट जाते हैं, उसी प्रकार दोषभीरु (पापादि दोषों से भय खाने वाले मुमुक्षु) को पापों के मार्ग से परे हो जाना चाहिए ।
12. As a cautious being keeps off the track of tempestuous torrents and wild horny beasts for his own safety, so a morally vigilant soul should never so much as approach trails fraught with sinful inertia.
पावकम्मोदयं पप्प, दुक्खतो दुक्खभायणं ।
दोसा दोसोदई चेव, पावकज्जा पसूयति ।।13।।
13. पाप कर्मों का उदय होने पर जीव दुःखों से और अधिक दुःखों का भाजन बनता है। दोषी व्यक्ति और अनेक प्रकार के दोषों को ग्रहण करने वाले पाप कार्यों को उत्पन्न करता है।
13. Once the chain of evil destiny sets in there is misery and woe sans end. An evil doer is hurled headlong into sins abounding. उव्विवारा जलोहन्ता, तेतणीए मतोट्ठितं ।
जीवितं वा वि जीवाणं, जीवन्ति फलमन्दिरं ।।14।।
14. भूकम्प, जलसमूह, अग्नि अथवा तृणगुच्छ से मरकर भी प्राणियों का जीवन पुनः आरम्भ हो जाता है। फल का मन्दिर - आश्रय स्थान कर्म जब तक विद्यमान है तब तक जीवों का पुनर्जीवन भी चलता रहेगा।
14. An individual meeting his death by earth-quake, water, fire or nettled creepers does not cease to be. There is a sequel of his certain transmigration. So long as Karmas exist to breed destiny transmigration is predestined.
देज्जाहि जो मरन्तस्स, सागरन्तं वसुंधरं । जीवयं वा वि जो देज्जा, जीवितं तु स इच्छती ।।15।।
15. मरते हुए प्राणी को समुद्र पर्यन्त पृथ्वी दी जाए या जीवन दिया जाए तो वह मरने वाला प्राणी जीवन की ही चाहना करेगा।
15. A man breathing his last would prefer survival to a reign of world-wide empire.
426 इसिभासियाई सुत्ताई