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41. एगचत्तालीसं इन्दनागिज्जज्झयणं
जेसिं आजीवतो अप्पा, णराणं बलदंसणं।
तवं ते आमिसं किच्चा, जणा संणिचते जणं।।1।। 1. जो जीव अपनी आजीविका के लिये तपोबल का प्रदर्शन कर मानव समूह को एकत्र करते हैं वे वस्तुतः अपने तपोबल को आसक्ति से दूषित करते हैं।
1. Those who draw huge crowds to themselves by expending their moral acquisition for their livelihood are, in fact, polluting their virtue by attachment
विकीतं तेसि सूकडं तु, तं च णिस्साए जीवियं।
कम्मचेट्टा अजाता वा, जाणिज्जा ममका सढा।।2।। 2. उन जीवों का सुकृत मानो बिकाऊ होता है और उस सुकृत पर आधारित उनका जीवन भी बिका हुआ होता है। उनका क्रियाकलाप निकृष्ट होता है। वे अहंकारी और शठ/धूर्त होते हैं।
2. Their virtue is like a purchaseable commodity and their life, thriving on such a virtue, is also a saleable commodity. Their conduct is base. They are damned by their vanity and depravity.
गलुच्छिन्ना असोते वा, मच्छा पावन्ति वेयणं।
अणागतमपस्सन्ता, पच्छा सोयन्ति दम्मती।।3।। 3. निर्जल स्थान में अथवा छेदित कण्ठ वाला मत्स्य जैसे वेदना को प्राप्त करता है, इसी प्रकार भविष्य को न देखने वाला दुर्मति जीव बाद में शोक करता है।
3. A fish without water and one angled in a hook is a damned one. Similar is the unenviable fate of one who is ignorant of one's future destiny.
मच्छा व झीणपाणीया, कंकाणं घासमागता।
पच्चुप्पण्णरसे गिद्धा, मोहमल्लपणोल्लिया।।4।। 4. जैसे मत्स्य अल्प पानी के कारण कंकास घास में आकर फंस जाता है, वैसे ही मोहमल से उद्वेलित जीव वर्तमान में प्राप्त रसों (सुखों) में लुब्ध हो जाता है।
41. इन्द्रनाग अध्ययन 415