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सत्तं बुद्धी मती मेधा, , गम्भीरं सरलत्तणं।
कोहग्गहऽभिभूयस्स, सव्वं भवति णिप्पभं।।7। 7. क्रोध रूपी ग्रह से अभिभूत मानव के सत्त्व, बुद्धि, मति, मेधा, गाम्भीर्य, सरलता (आदि) समस्त (गुण) निष्प्रभ हो जाते हैं।
7. Essential virtue, wisdom, foresight, sobriety, simplicity and all the excellences of one are depotentised, when one is eclipsed by wrath.
गंभीरमेरुसारे वि, पुव्वं होऊण संजमे।
कोवुग्गमरयोधूते, असारत्तमतिच्छति।।8।। 8. पहले संयम में सुमेरु के समान गम्भीर और स्थिर रहा हो, किन्तु क्रोधोत्पत्ति की धूलिमात्र से वह उस संयम को पूर्णतया निस्सार कर देता है।
8. Even if he were as profound in restraint as golden mountain Sumeru, prior to the wrathful spell, all this is nullified once the anger is triggered.
महाविसे वही दित्ते, चरेऽदत्तंकुरोदये।
चिट्ठे चिढ़े स रूसन्ते, णिव्विसत्तमुपागते।।१।। 9. जिस प्रकार महाविषधर सांप दन्धि होकर कूर-वनस्पति विशेष को डसता है जिससे भविष्य में वह अंकुरित नहीं हो पाती। किन्तु, (उसको डसने पर उसे कुछ भी स्वाद प्राप्त नहीं होता उससे) वह रुष्ट होकर रुक-रुक कर उसको डसते हुए अपने विष को समाप्त कर देता है।
9. It is like a ferocious serpent that stings repeatedly, for no benefit to himself, till he ejaculates whole of his venom and the plant, thus stung, withers to death...
एवं तवोबलत्थे वि, णिच्चं कोहपरायणे।
अचिरेणऽवि कालेणं, तवोरित्तत्तमिच्छति।।10।। ____ 10. उसी प्रकार तपोबलशाली भी सर्वदा क्रोधपरायण होकर थोड़े से समय में ही अपने तपोबल को भी पूर्णतः समाप्त कर देता है।
10. If a profound ascetic would lapse into wrath, he is likely to be shorn of the virtue of his penances in a short while.
गम्भीरोवि तवोरासी, जीवाणं दुक्खसंचितो। अक्खेविणं दवग्गी वा, कोवग्गी दहते खणा।।11।।
36. तारायण अध्ययन 397