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9. काम का अन्वेषण दुःखकारी है। काम की तृप्ति दुर्लभ है। इसका वियोग भी अत्यन्त दुःखप्रद है। वस्तुतः तृष्णा का क्षय ही परम सुख है।
9. Exploration of desire is painful. Its satiation is a daydream. Its unfulfilment is again painful. True happiness indeed lies in desirelessness.
कामभोगाभिभूतप्पा, वित्थिण्णा वि णराहिवा।
फीतिं कित्तिं इमं भोच्चा, दोग्गतिं विवसा गया।।10।। __ 10. काम-भोगों से अभिभूत और तप्त राजागण भी विपुल राज्य और निर्मलकीर्ति को प्राप्त करके भी अन्त में विवश होकर दुर्गति को प्राप्त हुए।
10. Libidinous mighty princes with immense resources at the command ultimately met a compulsive doom.
काममोहितचित्तेणं, विहाराहारकंखिणा।
दुग्गमे भयसंसारे, परीतं केसभागिणा।।11।। 11. कामग्रस्त चित्तवाला (स्वच्छन्द) आहार-विहार का आकांक्षी होता है और इस दुर्गम एवं भयावह संसार में चारों ओर से क्लेश प्राप्त करता है।
11. A sensual character with insatiable itch ever seeks indulgence and falls a victim to the multiple woes of this infernal maze called life.
अप्पक्कतावराहोऽयं, जीवाणं भवसागरो।
सेओ जरग्गवाणं वा, अवसाणम्मि दुत्तरो।।12।। 12. प्राणी आत्मकृत (स्वकृत) अपराधों-पापों से भवसागर की वृद्धि करते हैं। वे अपराध वृद्ध बैल की भाँति अवसान के समय दुस्तरणीय होते हैं।
12. We add to our mundane travail by multiplying sins, and peccadillos. Such misdeeds pose an unenviable catastrophe at the end as in case of a defeated old ox.
अप्पक्कतावराहेहिं, जीवा पावन्ति वेदणं।
अप्पक्कतेहि सल्लेहिं, सल्लकारी व वेदणं।।13॥ 13. प्राणी आत्मकृत अपराधों से ही वेदना को प्राप्त करते हैं और आत्मकृत शल्यों से ही शल्यकारी वेदना को प्राप्त करते हैं।
13. It is his own sins and misdeeds that generate woe for him and anguish of all kind. 356 इसिभासियाई सुत्ताई