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________________ दोनों को एक मानने में बाधा आती है। मेरी दृष्टि में 33वें अध्याय में उल्लेखित संजय 39वें अध्याय के प्रवक्ता संजय से भिन्न होंगे। बौद्ध परम्परा में हमें संजय नामक 7 व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है,287 किन्तु उनमें से सारिपुत्र के पूर्व-गुरु और संजय वेलट्ठिपुत्त के नाम से प्रसिद्ध संजय के अतिरिक्त अन्य किसी संजय से ऋषिभाषित में उल्लेखित संजय की एकरूपता स्थापित कर पाना कठिन है। बौद्ध विद्वानों में इस सम्बन्ध में अधिक मतभेद नहीं है कि सारिपुत्र के पूर्व-गुरु और संजय वेलट्ठिपुत्त एक ही व्यक्ति हैं। ये बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों में एक माने गये हैं, अतः दोनों में कालिक समानता तो है ही। साथ ही सारिपत्र और मोग्गलायन के साथ इनके 250 शिष्यों का बुद्ध के संघ में प्रवेश भी इस तथ्य का सूचक है कि ये अपने युग के प्रभावशाली आचार्य थे। अतः यह निर्विवाद है कि सारिपुत्र के पूर्व-गुरु और संजय वेलपित्त एक ही व्यक्ति हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या ये और ऋषिभाषित के संजय भी एक ही व्यक्ति हैं? यदि हम इस परम्परागत मान्यता को स्वीकृत करते हैं कि ऋषिभाषित के संजय महावीर के समकालीन हैं, तो बुद्ध के समकालीन और सारिपुत्र के पूर्व-गुरु संजय वेलट्रिपत्त से इनकी एकरूपता स्थापित करने में कालिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती है। चूकि, यदि ऋषिभाषित में महावीर के समकालीन मंखलि गोसाल के विचार संकलित हो सकते हैं, तो उसमें संजय वेलट्रिपत्त के विचारों को संकलित होने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। बौद्ध परम्परा में संजय को विक्षेपवादी या संशयवादी कहा गया है, क्योंकि वे तात्त्विक प्रश्नों के निश्चयात्मक या एकान्तिक उत्तर नहीं देते थे। आज की भाषा में वे किसी तात्त्विक समस्या के सम्बन्ध में विविध विकल्पों की सम्भावना को देखते होंगे, अतः निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग नहीं करते होंगे। ऋषिभाषित में उनकी इस प्रकार की दृष्टि के प्रमाण उनके निम्नलिखित शब्दों में मिलते हैं-पापकर्म को सम्यक्रूपेण जान पाना रहस्यमय है,288 क्योंकि किसी कर्म का (अच्छा या बुरा होने का निर्णय) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अध्यवसाय आदि की दृष्टि से सम्यक विचार करने पर ही हो सकता है। ऋषिभाषित में प्रयुक्त 'रहस्से' शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। यहाँ 'समज्जिणित्ता' की जगह 'सम्म जाणित्ता' पद अधिक उपयुक्त होगा। (देखें-गाथा 4 के पश्चात् का गद्य भाग) ऋषिभाषित में संजय का उपदेश अति संक्षिप्त है। उसमें कहा गया हैपाप कृत्य न तो करना चाहिए और न करवाना चाहिए। यदि करना पड़ा हो या कर लिया हो तो उसे बार-बार न करें और उसकी आलोचना करें। ऋषिभाषित : एक अध्ययन 101
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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