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धर्मपरीक्षा-३ मनोवेगेन तत्रोक्तं तव मित्र कुतूहलम् । पूरयामि तदानीं त्वं कुरुषे यदि मे वचः॥४८ ततः पवनवेगो ऽपि श्रुत्वा तस्य वचो ऽगदत् । गिरं तव करिष्यामि मा शङ्किष्ठा महामते ॥४९ सुहृदस्ते वचः सर्व कुर्वे ऽहमिति निश्चितम् । अन्योन्यवञ्चनावृत्तौ मित्रता कीदृशी सखे ॥५० श्रुत्वेति वचनं सख्युमनोवेगो व्यचिन्तयत् । भविष्यत्येष सदृष्टि न्यथा जिनभाषितम् ॥५१ सो' ऽवादीति ततस्तेने तोषाकुलितचेतसा । यद्येवं तहि गच्छावो विशावो नगरं सखे ॥५२ गहीत्वा तणकाष्ठानि चित्रालङ्कारधारिणौ। अविक्षतां' ततो मध्यं लीलया नगरस्य तौ ॥५३ दृष्टवा तौ तादृशौ लोका विस्मयं प्रतिपेदिरे।
अदृष्टपूर्वके दृष्ट चित्रीयन्ते न के भुवि ॥५४ ५२) १. पवनवेगः । २. मनोवेगेन । ३. नगरमध्ये । ५३) १. प्रविष्टौ; क प्रवेशं कुरुताम् । वहाँपर मनोवेगने पवनवेगसे कहा कि हे मित्र! तुम यदि मेरा कहना मानते हो तो
हलको परा करता हूँ॥४८॥ उसके वचनको सुनकर पवनवेग भी बोला कि हे महाबुद्धि ! मैं तुम्हारा कहना मानूंगा, तुम इसमें शंका न करो ॥४९॥
हे मित्र ! मैं तुम जैसे मित्रके सब वचनोंका परिपालन करूँगा, यह निश्चित समझो। कारण यह कि यदि परस्परमें एक दूसरेको ठगनेकी वृत्ति रही तो फिर दोनोंके बीचमें मित्रता ही कैसे स्थिर रह सकती है ? नहीं रह सकती ॥५०॥
मित्र पवनवेगके इन वचनोंको सुनकर मनोवेगने विचार किया कि यह भविष्यमें सम्यग्दृष्टि हो जायेगा, जिन भगवानका कहना असत्य नहीं हो सकता ॥५१॥
फिर उसने मनमें अतिशय सन्तुष्ट होकर पवनवेगसे कहा कि यदि ऐसा है तो हे मित्र ! चलो फिर हम दोनों नगरके भीतर चलें ॥५२॥
तब अनेक प्रकारके आभूषणोंको धारण करनेवाले वे दोनों घास और लकड़ियोंको ग्रहण करके लीला (क्रीड़ा) से उस नगरके भीतर प्रविष्ट हुए ॥५३॥
उन दोनोंको उस प्रकारके वेषमें देखकर लोगोंको बहुत आश्चर्य हुआ। ठीक हैलोकमें जिस वस्तको पहले कभी नहीं देखा है उसके देखनेपर किनको आश्चर्य नहीं है ? अर्थात् सभीको आश्चर्य होता है ॥५४॥ ४८) अ तदा नीत्वा। ४९) अ मा संकष्ट । ५०) अ मा कुर्व for सर्व । ५२) ब नगरे । ५३) इ मध्ये; अ नगरांतके । ५४) अ misses verses 54 to 87; क चित्रायन्ते ।
मैं नगरके भीतर ले जाकर