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________________ अमितगतिविरचिता वदान्यः' कृपणः पापी धार्मिकः सज्जनः खलः । न को ऽपि मुच्यते जीवो दहता मृत्युवह्निना ॥५३॥ युग्मम् । हन्यन्ते त्रिदशा येने बलिनः सपुरंदराः । न नरान्निघ्नतैस्तस्य मृत्योः खेदो ऽस्ति कश्चन ।।५४ वह्यन्ते पर्वता येन दृढपाषाणबन्धनाः । विमुच्यन्ते कथं तेन वह्निना' तृणसंचयाः ॥५५ नोपायो विद्यते को ऽपि न भूतो न भविष्यति । निवार्यते यमो येन प्रवृत्तः प्राणिचर्वणे ॥५६ सर्वज्ञभाषितं धर्म रत्नत्रितयलक्षणम् । विहाय नापरः शक्तो जरामरणमर्दने ॥५७ जीविते मरणे दुःखे सुखे विपदि संपदि । एकाकी सर्वदा जीवो न सहायो ऽस्ति कश्चन ॥५८ ५३) १. दातार; क दाता। ५४) १. क अग्निना । २. इन्द्रेण सहिताः । ३. निहतः । ४. यमस्य । ५५) १. क अग्निना। कायर, स्वामी, सेवक, दाता, सूम, पापी, पुण्यात्मा, सज्जन, और दुर्जन; इनमें से कोई भी जीव उस जलानेवाली मृत्युसे नहीं छूट सकता है-समयानुसार ये सब ही मरणको प्राप्त होनेवाले हैं ॥५२-५३।। जिस मृत्युके द्वारा इन्द्रके साथ अतिशय बलवान देव भी मारे जाते हैं उस मृत्युको मनुष्योंको मारनेमें कोई खेद नहीं होता है। ठीक ही है-जो अग्नि मजबूत पत्थरोंसे सम्बन्धित पर्वतोंको जला डालती है वह अग्नि तृणसमूहों (घास-फूस) को भला कैसे छोड़ सकती है ? नहीं छोड़ती है ॥५४-५५॥ वह कोई भी उपाय न वर्तमानमें है, न भूतकाल में हुआ है, और न भविष्यमें होनेवाला है। जिसके कि द्वारा जीवोंके चबानेमें प्रवृत्त हुए यमको रोका जा सके-उनको मरनेसे बचाया जा सकता हो ॥५६॥ सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट रत्नत्रयस्वरूप धर्मको छोड़कर और दूसरा कोई भी जरा एवं मृत्युके नष्ट करने में समर्थ नहीं है-यदि जन्म, जरा एवं मरणसे कोई बचा सकता है तो वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय ही बचा सकता है ॥५७।। जीवित और मरण, सुख और दुख तथा सम्पत्ति और विपत्ति इनके भोगने में प्राणी निरन्तर अकेला ही रहता है। उसकी सहायता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥५८॥ ५३) ब इom युग्मम् । ५६) अ प्राणचर्वणे, ब जनचर्वणे ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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