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________________ धर्मपरीक्षा - प्रशस्तिः विबुध्य गृह्णीय बुधा ममोदितं शुभाशुभं ज्ञास्यथ निश्चितं स्वयम् । निवेद्यमानं शतशो ऽपि जानते स्फुटं रसं नानुभवन्ति तं जनाः ॥१५ क्षतसकलकलङ्का प्राप्यते तेन कीर्तिर्बुधमतमनवद्यं बुध्यते तेन तत्त्वम् । हृदयसदनमध्ये धूतमिथ्यान्धकारो जिनपतिमतदीपो दीप्यते यस्य दीप्रः ॥ १६ वदति पठति भक्त्या यः शृणोत्येकचित्तः स्वपरसमयतत्त्वावेदि शास्त्रं पवित्रम् । विदितसकलतत्त्वः केवलालोकनेत्रस्त्रिदशमहितपादो यात्यसौ मोक्षलक्ष्मीम् ॥१७ धर्मो जैनो पविघ्नं प्रभवतु भुवने सर्वदा शर्मदायी शान्ति प्राप्नोत् लोको धरणिमवनिपा न्यायतः पालयन्तु । हत्वा कर्मारिवर्गं यमनियमशरैः साधवो यान्तु सिद्धि विध्वस्ताशुद्धबोधा निजहितनिरता जन्तवः सन्तु सर्वे ॥१८ यावत्सागरयोषितो जलनिधि श्लिष्यन्ति वीचीभुजे भर्तारं सुपयोधराः कृतरवा मीनेक्षणा वाङ्गनाः । तावत्तिष्ठतु शास्त्रमेतदनघं क्षोणीतले कोविदै धर्माधर्मविचारकैरनुदिनं व्याख्यायमानं मुदा ॥१९ ३५१ विद्वज्जनो ! मैंने जो यह कहा है उसे जानकर आप लोग ग्रहण कर लें, ग्रहण कर लेनेके पश्चात् उसकी उत्तमता या अनुत्तमताको आप स्वयं निश्चित जान लेंगे। जैसेमिश्री आदि किसी वस्तुके रसका बोध करानेपर उसे मनुष्य सैकड़ों प्रकारसे जान तो लेते हैं, परन्तु प्रत्यक्षमें उन्हें उसका अनुभव नहीं होता है - वह अनुभव उन्हें उसको ग्रहण करके चखनेपर ही प्राप्त होता है || १५ || जिसके अन्तःकरणरूप भवनके भीतर मिध्यात्वरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाला जिनेन्द्रका मतरूप भास्वर दीपक जलता रहता है वह समस्त कलंकसे रहित - निर्मलकीर्तिको प्राप्त करता है तथा विद्वानोंको सम्मत निर्दोष वस्तुस्वरूपको जान लेता है ||१६|| जो भव्य प्राणी अपने और दूसरोंके आगम में प्ररूपित वस्तुस्वरूप के ज्ञापक इस पवित्र शास्त्रको भक्तिपूर्वक वाचन करता पढ़ता है और एकाग्रचित्त होकर सुनता है वह केवल - ज्ञानरूप नेत्र से संयुक्त होकर समस्त तत्त्वका ज्ञाता द्रष्टा होता हुआ देवोंके द्वारा पूजा जाता है और अन्तमें मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है ||१७|| अन्तमें आचार्य अमितगति आशीर्वाद के रूपमें कहते हैं कि निर्बाध सुखको देनेवाला जैन धर्म लोक में सब विघ्न-बाधाओंसे रहित होता हुआ निरन्तर प्रभावशाली बना रहे, जन समुदाय शान्तिको प्राप्त हो, राजा लोग नीतिपूर्वक पृथिवीका पालन करें, मुनिजन संयम व नियमरूप बाणोंके द्वारा कर्मरूप शत्रुसमूहको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त हों, तथा सब ही प्राणी अज्ञानभावको नष्ट कर अपने हितमें तत्पर होवें ||१८|| जिस प्रकार उत्तम स्तनोंकी धारक व मछलीके समान नेत्रोंवाली स्त्रियाँ मधुर सम्भाषणपूर्वक भुजाओंसे पतिका आलिंगन किया करती हैं उसी प्रकार उत्तम जलकी धारक व मछलियोंरूप नेत्रोंसे संयुक्त समुद्रकी स्त्रियाँ - नदियाँ - जबतक कोलाहलपूर्वक अपनी लहरोंरूप भुजाओंके द्वारा समुद्रका आलिंगन करती रहेंगी - उसमें प्रविष्ट होती रहेंगी - - तबतक १८) इ पविघ्नो ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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