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________________ धर्मं परीक्षा - प्रशस्तिः कोपनिवारी शमदमधारी माधवसेनः प्रणतरसेनः । सो ऽभवदस्माद्गलितमदोष्मा यो यतिसारः प्रशमितमारः ॥५ धर्मपरीक्षामकृत वरेण्यां धर्मपरीक्षामखिलशरण्याम् । शिष्य वरिष्ठोऽमितगतिनामा तस्य पटिष्ठो ऽनघगतिधामा ॥६ बद्धं मया जडधियात्र विरोधि यत्तद् गृह्णन्त्विदं स्वपरशास्त्रविदो विशोष्य । गृह्णन्ति किं तुषमपास्य न सस्यजातं सारं न सारमिदमुद्धधियो विबुध्य ॥७ कृतिः पुराणा सुखदा न नूतना न भाषणीयं वचनं बुधैरिदम् । भवन्ति भव्यानि फलानि भूरिशो न भूरुहां कि प्रसवप्रसूतितः ॥८ पुराणसंभूतमिदं न गृह्यते पुराणमत्यस्य न सुन्दरेति गीः । सुवर्णपाषाणविनिर्गतं जने न कांचनं गच्छति किं महार्घताम् ॥९ ३४९ किया था तो उन्होंने आत्म-परके विवेक द्वारा उस कामदेवको - विषयवासनाको - सर्वथा. नष्ट कर दिया था, समाधिके संरक्षण में जैसे शंकर तत्पर रहते थे वैसे वे भी उस समाधि के संरक्षण में तत्पर रहते थे, तथा शंकर जहाँ प्रमथादिगणोंके द्वारा पूजे जाते थे वहाँ वे मुनिगणोंके द्वारा पूजे जाते थे ||४|| उनके जो माधवसेन शिष्य हुए वे क्रोधका निरोध करनेवाले, शम - राग-द्वेषकी उपशान्ति - और दम ( इन्द्रियनिग्रह ) के धारक,....., गर्वरूप पाषाणके भेत्ता, मुनियों में श्रेष्ठ व कामके घातक थे ||५|| उनके शिष्यों में श्रेष्ठ अमितगति आचार्य (द्वितीय) हुए जो अतिशय पटु होकर अपनी बुद्धिके तेजको नयोंमें प्रवृत्त करते थे । उन्होंने पापसे पूर्णतया रक्षा करनेवाली धर्म की परीक्षास्वरूप इस प्रमुख धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थको रचा है ||६|| आचार्य अमितगति कहते हैं कि मैंने यदि अज्ञानतासे इसमें किसी विरोधी तत्त्वको निबद्ध किया है तो अपने व दूसरोंके आगमोंके ज्ञाता जन उसे शुद्ध करके ग्रहण करें । कारण कि लोक में जो तीव्र बुद्धि होते हैं वे क्या 'यह श्रेष्ठ है और यह श्रेष्ठ नहीं है' ऐसा जानकर छिलको दूर करते हुए ही धान्यको नहीं ग्रहण किया करते हैं ? अर्थात् वे छिलके को दूर करके ही उस धान्यको ग्रहण करते देखे जाते हैं ॥७॥ पुरानी रचना सुखप्रद होती है और नवीन रचना सुखप्रद नहीं होती है, इस प्रकार artist कभी नहीं कहना चाहिए। कारण कि लोकमें फलोंकी उत्पत्ति में वृक्षोंके फल क्या अधिक रमणीय नहीं होते हैं ? अर्थात् उत्तरोत्तर उत्पन्न होनेवाले वे फल अधिक रुचिकर ही होते हैं ॥८॥ चूँकि यह ग्रन्थ पुराणों से - महाभारत आदि पुराणग्रन्थोंके आश्रयसे - उत्पन्न हुआ है, अतः पुराणको छोड़कर इसे ग्रहण करना योग्य नहीं है; यह कहना भी समुचित नहीं है । देखो, सुवर्णपाषाणसे निकला हुआ सुवर्ण क्या मनुष्य के लिए अतिशय मूल्यवान् नहीं प्रतीत होता है ? अर्थात् वह उस सुवर्णपाषाणसे अधिक मूल्यवाला ही होता है ||९|| ७) इ यद्यद्; क ड स्वरशास्त्रविदोविप शोध्या; ह े मुद्यधियो । ९) इ महर्घताम् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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