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अमितगतिविरचिता
नवास साधुं निजगाद दिष्टयो मुनेः समानो न मयास्ति धन्यः । आलम्बनं येन वचस्त्वदीयं श्वभ्रान्धकूपे पतताद्य लब्धम् ॥८३ यस्त्वदीयवचनं शृणोति' ना सो ऽपि गच्छति मनीषितं फलम् । यः करोति पुनरेकमानसं तस्य कः फलनिवेदने क्षमः ॥८४ प्राप्य ये तव वचो न कुर्वते ते भवन्ति मनुजा न निश्चितम् । रत्नभूमिमुपगम्य मुच्यते रत्नमत्र पशुभिर्न मानवैः ॥८५ इति वचनमनिन्द्यं खेटपुत्रो' निगद्य
व्रत समितिसमेतैः साधुवर्गेः समेतम् । सविनयमवनम्य प्रीतितः केवलोन्द्र
रजतगिरिवरेन्द्र मित्रयुक्तः प्रपेदे ॥८६ तं विलोक्य जिनधर्मभावितं तुष्यति स्म जितशत्रुदेहजः । स्वश्रमे हि फलिते विलोकिते संमदो हृदि न कस्य जायते ॥ ८७
८३) १. हर्षेण ।
८४) १. प्रतिपालयति ।
८६) १. मनोवेगः । २. केवलज्ञानिनम् ।
८७) १. मित्रम् । २. संयुक्तम् । ३. हर्षं ।
फिर वह उन मुनिराज से बोला कि हे साधो ! मेरे समान धन्य और दूसरा कोई नहीं है — मैं आज धन्य हुआ हूँ । कारण कि मैंने नरकरूप अन्धकूपमें गिरते हुए आज आपकी वाणीका सहारा पा लिया है || ८३ ||
जो मनुष्य केवल आपके उपदेशको सुनता ही है वह भी अभीष्ट फलको प्राप्त करता है । फिर भला जो एकाचित्त होकर तदनुसार प्रवृत्ति भी करता है उसके फलके कहने में कौन समर्थ है ? अर्थात् वह अवर्णनीय फलको प्राप्त करता है || ८४||
जो जन आपके सदुपदेशको पाकर तदनुसार आचरण नहीं करते हैं वे मनुष्य नहीं हैं- पशु तुल्य ही हैं, यह निश्चित है । उदाहरण के रूपमें रत्नोंकी पृथिवीको पाकर यहाँ पशु ही रत्नको छोड़ते हैं - उसे ग्रहण नहीं करते हैं, मनुष्य वहाँ कभी भी रत्नको नहीं छोड़ते हैं ॥८५॥
इस प्रकार निर्दोष वचन कहकर उस विद्याधरके पुत्र पवनवेगने व्रत और समितियों से संयुक्त ऐसे साधुसमूहोंसे वेष्टित केवली जिनको विनयके साथ हर्षपूर्वक नमस्कार किया । तत्पश्चात् वह मित्र मनोवेग के साथ विजयार्ध पर्वतपर जा पहुँचा ||८६||
पवनवेगको जैन धर्मसे संस्कृत देखकर राजा जितशत्रुके पुत्र उस मनोवेगको अतिशय सन्तोष हुआ । ठीक है - अपने परिश्रमको सफल देखकर किसके अन्तःकरणमें हर्ष नहीं उत्पन्न होता है ? अर्थात् परिश्रम सफल हो जानेपर सभीको हर्ष हुआ करता है ॥८७॥
८४) क मानसस्तस्य । ८६) क इ समितिगतैस्तैः ।
८३) ड पतताथ; ब दीप्त्या for दिष्टया । ८७) अ कस्य न ।