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________________ ३३९ धर्मपरीक्षा-२० यो विजिताक्षस्त्यजति महात्मा पर्वणि नित्यं निघुवनकर्म'। ध्वंसिततीव्रस्मरशरगवः सर्वसुरायॊ भवति स शक्र: ॥४६ निरस्य भूरिद्रविणं पुरातनं विधीयते येन निकेतने' नवम् । क्षणेन दारिद्रयमवार्यमूजितं विचक्षण तमिदं निरस्यते ॥४७ बान्धवस्त्यज्यते कोविनिन्द्यते दुर्जनैहस्यते सज्जनैः शोच्यते । बध्यते रुध्यते ताड्यते पोड्यते द्यूतकारः परैर्दूतकारैर्नरैः ॥४८ धर्मकामधननाशपटिष्ठं कृष्णकर्मपरिवर्धननिष्ठम् । द्यूततो न परमस्ति निकृष्टं' शोलशौचसमधीभिरनिष्टम् ॥४९ मातुरपास्यति' वस्त्रमधोर्यो' पूज्यतमं सकलस्य जनस्य । कर्म करोति निराकृतलज्जः किं कितवो न परं स विनिन्द्यः ॥५० ४६) १. मैथुनकर्म । २. इन्द्रः । ४७) १. गृहे । २. त्यज्यते । ४९) १. दुष्टम् । ५०) १. मुष्णाति । २. द्यूतकारः । ३. द्यूतकारः । सुख उत्पन्न करती है, परन्तु यदि मूर्खतावश उसका अतिशय आसक्तिपूर्वक निरन्तर सेवन किया जाता है तो वह क्षयादि रोगोंसे उत्पन्न होनेवाली पीड़ाका भी कारण होती है ।।४५।। जो जितेन्द्रिय महापुरुष अष्टमी व चतुर्दशी आदि पर्वके समय सदा मैथुन क्रियाका परित्याग करता है वह कामदेवके बाणोंकी तीक्ष्णताके प्रभावको नष्ट कर देनेके कारण इन्द्र होकर सब देवों द्वारा पूजा जाता है ॥४६।। जो जुआका व्यसन पूर्वके बहुत-से धनको नष्ट करके घरमें अनिवार्य नवीन प्रबल दरिद्रताको क्षण-भरमें लाकर उपस्थित कर देता है उसका विचारशील मनुष्य सदाके लिए परित्याग किया करते हैं ॥४७॥ जुवारी मनुष्यका बन्धुजन परित्याग किया करते हैं, विद्वान् जन उसकी निन्दा किया करते हैं, दुष्ट जन उसका परिहास किया करते हैं, सत्पुरुषोंको उसके विषयमें पश्चात्ताप हुआ करता है; तथा अन्य जुवारी जन उसको बाँधते, रोकते, मारते और पीड़ित किया करते हैं ॥४८॥ जुआ चूँकि धर्म, काम और धनके नष्ट करनेमें दक्ष होकर समस्त कष्टोंके बढ़ाने में तत्पर रहता है तथा शील, शौच व शान्तिमें बुद्धि रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिए वह अभीष्ट नहीं है। इसीलिए जुआसे निकृष्ट (घृणास्पद ) अन्य कोई वस्तु नहीं है ।।४९॥ जो निर्बुद्ध जुवारी मनुष्य समस्त जनोंको अत्यन्त पूज्य माताके वस्त्रका अपहरण करता है वह भला निर्लज्ज होकर और कौन-से दूसरे निन्द्य कार्यको नहीं कर सकता है ? अर्थात् वह अनेक निन्द्य कार्योंको किया करता है ॥५०॥ ४७) अ निधीयते। ४८) ड बध्यते ताड्यते पीड्यते ऽहनिशम् । ४९) अ ब कृत्स्नकष्टपरि । ५०) अइ दुष्ट for पूज्य; ड इ सविनिन्द्यम् ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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