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अमितगतिविरचिता
श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषमुषां साघोर्गुणाशंसिनी
नत्वा केवलिपादपङ्कजयुगं मामरेन्द्राचितम् । आत्मानं व्रतरत्नभूषितमसौ चक्रे विशुद्धाशयो
भव्याः प्राप्य यतेगिरो ऽमितगतेद्याः कथं कुर्वते ॥१०१ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायामेकोनविंशतितमः परिच्छेदः ॥१९॥
इस प्रकार विशुद्ध अभिप्रायवाले उस पवनवेगने समस्त पापमलको दूर करनेवाले उन जिनमति मुनिके व्रतविषयक उपदेशको सुनकर मनुष्यों व देवोंसे पूजित केवली जिनके दोनों चरणकमलोंको नमस्कार करते हुए अपनेको व्रतरूप रत्नसे विभूषित कर लियाश्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया। ठीक है-भव्य जन अपरिमित ज्ञानके धारक मुनिके उपदेशको पाकर भला उसे व्यर्थ कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते-वे उसे सफल ही किया करते हैं ॥१०॥
इस प्रकार आचार्य अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें उन्नीसवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१९॥
१०१) अ कल्मषमुषं, बमुषः ; ब क साधोत्रता; अशंसिमीनत्वा ; ड इ भव्यः ; व प्रार्थयते for प्राप्य यते।