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________________ धर्मपरीक्षा-१ स्तैवैरमीभिर्मम धूयमाना नश्यन्तु विघ्नाः क्षणतः समस्ताः । उद्वेजयन्तो जनता प्रवृद्धः सद्यः समोरैरिव रेणुपुजाः ॥७ आनन्दयन्तं सुजनं त्रिलोकों गुणैः खलः कुप्यति वीक्ष्य दुष्टः। कि भूषयन्तं किरणस्त्रियामों विलोक्य चन्द्र ग्रसते न राहुः॥८ शिष्टाये दुष्टो विरताय कामी निसर्गतो जागरुकायें चौरः। धर्माथिने कुप्यति पापवृत्तिः शूराय भीरुः कवये ऽकविश्च ॥९ शङ्के भुजङ्ग पिशुनैः कृतान्तः परापकाराय कृता विधात्रा। निरीक्षमाणा जनतां सुखस्थामुद्वैजयन्ते कथमन्यथामी ॥१० ७) १. पञ्चपरमेष्ठिनां स्तोत्रैः । २. क पूर्वोक्तैः । ३. क कम्पमानाः । ४. क पीडयन्तः। ५. क लोक समूहम् । ६. क पवनैः । ७. क रजःकणसमूहाः । ८) १. सुजनं दृष्ट्वा कुप्यति। २. रात्रिम् । ३. राहुः चन्द्रमसं किं न ग्रसते, अपि तु ग्रसते; क किं न पीडते। ९) १. महानुभावपुरुषाय दुष्टपुरुषः कुप्यति; क साधुजनाय । २. क भोगरहिताय । ३. स्वभावतः, क स्वभावात् । ४. कुर्कुराय । ५. क कायरः । १०) १. अहं मन्ये एवम्, अहं विचारयामि । २. क सर्पाः । ३. क वैरिणः । ४. क यमः । ५. क पर पीडाकराय । ६. निष्पादिताः । ७. क उत्त्रासयन्ति । ८. क भुजङ्गपिशुनकृतान्ताः । जनसमूहको उद्विग्न करनेवाले विघ्न इन स्तुतियोंके द्वारा कम्पित होकर इस प्रकारसे नष्ट हो जावें जिस प्रकार कि वृद्धिंगत वायुके द्वारा कम्पित होकर धूलिके समूह शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।।७॥ __ जो सजन अपने गुणोंके द्वारा तीनों लोकोंको आनन्दित किया करता है उसको देख करके स्वभावसे दुष्ट दुर्जन मनुष्य क्रोधको प्राप्त होता है । सो ठीक भी है, क्योंकि अपनी किरणोंके द्वारा रात्रिको विभूषित करनेवाले चन्द्रमाको देखकर क्या राहु उसे ग्रसित नहीं करता है ? करता ही है । तात्पर्य यह है कि दुर्जन मनुष्यका स्वभाव ही ऐसा हुआ करता है कि वह सज्जन पुरुषोंकी उत्तम कृतिको देखकर उसके विषयमें दोषोंको प्रगट करता हुआ उनसे ईर्ष्या व क्रोध करता है । अतएव सत्पुरुषोंको इससे खिन्न नहीं होना चाहिये ।।८।। दुष्ट पुरुष शिष्टके ऊपर, विषयी मनुष्य विषयविरक्तके ऊपर, चोर जागनेवालेके ऊपर, दुराचारी धर्मात्माके ऊपर, कायर वीरके ऊपर, तथा अकवि (योग्य काव्यकी रचना न कर सकनेवाला ) कविके ऊपर स्वभावसे ही क्रोध किया करता है ॥९॥ ___मैं समझता हूँ कि सर्प, निन्दक (चुगलखोर ) और यमराज; इन सबको ब्रह्माने दूसरे प्राणियोंका अहित करनेके लिये ही बनाया है। कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर ये सब जनसमूहको सुखी देखकर उसे उद्विग्न कैसे करते ? नहीं करना चाहिये था। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सर्प व यम जन्मसे ही स्वभावतः दूसरोंका अहित करनेवाले हैं उसी प्रकार दुर्जनका भी स्वभाव जन्मसे ही दूसरोंके अहित करनेका हुआ करता है ॥१०॥ ८)इ कोऽपि for वीक्ष्य । १०) क ड इ भुजङ्गाः पिशुनाः; क ड कृतान्ताः ।
SR No.006233
Book TitleDharm Pariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
Author
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1978
Total Pages430
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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